एक कोशिश मिल बैठने की....

Wednesday, July 29, 2009

श्रद्धाञ्जलि


६ अप्रैल २००८,आज से ही नवरात्र प्रारम्भ होने वाला था,यह रविवार का दिन ही साक्षी बनना था एक महान् विद्वान,एक भक्त के देहावसान का।
बयान करना मुश्किल है कि पिता की मृत्यु हृदय को कितना विदीर्ण करती है।पिछले ३० सालों का साथ एक झटके में छूट गया चलिए मैं तो बेटा हूँ उसकी क्या हालत हुई होगी जो बचपन में साथ खेला और उन्हें देखते हुए बड़ा हुआ,वो भाई कैसा महसूस कर रहा होगा लगभग रोज़ झगड़ना करीब ६५-६८ सालों से!!!
सब एक दिन खत्म,सच में कुछ छन से टूट जाता है भीतर।
सालों से देख रहा हूँ वही बिस्तर वही बिखरा सामान,अक्सर हम कहा करते कि ये सामान ये किताबें कहीं और क्यों नहीं रख लेते,बहुता अस्त-व्यस्त दिखता है।पर कभी कोई विरोध या नाराज़गी नहीं दिखाई बस मुस्कुरा कर रह जाते थे और कहा करते कि तुमलोग नहीं समझोगे।अब भी सबकुछ वैसा ही है बिस्तर पर बिखरी किताबें,दिनकर का कुरुक्षेत्र,जानकीवल्लभ शास्त्री की राधा,स्वामी विवेकानन्द का ज्ञानयोग,महात्मा विदुर,भाषा-विज्ञान और उनकी स्वलिखित कुछ अप्रकाशित पुस्तकों के साथ अन्य भी हैं और सब ज्यों की त्यों।कुछ पर से मैंने धूल साफ़ की थी और कुछ पर धूल की चादर यूँ ही बिछी पड़ी है।इतना संचय इतना संग्रह है पर केवल किताबों का पैसे तो कुछ खास होते नहीं थे उनके पास।५-६ हज़ार की पेंशन और उनके खाते में कोई २० हज़ार के आस-पास की कुल जमा पूँजी रही होगी,पर आप उनसे किताबों की बातें कर सकते थे व्याकरण,साहित्य,कर्मकाण्ड,ज्योतिष और अध्यात्म की ढेरों किताबें,उन्हें पढ़ने का बहुत शौक़ था पक्के तौर पर नहीं कह सकता पर ५-६ घण्टे तो जरूर पढ़ते थे।बहुत दुःखी रहते थे हमसे हमेशा कहा करते थे कि काश! तुम सुयोग्य होते तो तो मेरी ये पुस्तकें तुम्हारे बहुत काम आतीं।
खैर इतनी उत्कट प्रतिभा इतना व्यापक ज्ञान और कमाल ये कि केवल साहित्य ही नहीं वरन् व्याकरण,कर्मकाण्ड,ज्योतिष,अध्यात्म और तंत्र विज्ञान पर भी उतनी ही व्यापक दृष्टि उतनी ही अच्छी पकड़ थी।
उनकी तस्वीरें हैं मेरे पास,बहुत सारी हैं कुछ अच्छे समय की हैं कुछ महाप्रयाण के समय की हैं।चेहरे पर का तेज वैसे का वैसा है,ऐसा लगता है कि जैसे सो रहे हैं ज़रा सा छूते ही उठ जायेंगे।उनको इस हालत में देख कर मेरी बेटी गुनगुन जो कि उनकी पूजा के समय उनके आसपास मडराती रहती थी और उन्हें पूजा वाले दादाजी कहा करती थी ने मुझसे पूछा कि पूजा वाले दादाजी को क्या हुआ है? बालसुलभ सवाल अब क्या जवाब देता क्या कहता रटा रटाया किन्तु सबसे सही जवाब "पूजा वाले दादाजी भगवान के पास चले गए हैं,और बहुत जब्त करने के बाद भी आँसुओं का बाँध टूट गया तो उसने बड़े ही ग़ौर से मुझे देखा और एकबार और पूछा कि पूजा वाले दादाजी को भगवान जी ले गए?मैनें रुँधे गले से कहा "हाँ" तो मेरी बच्ची एकदम खामोश हो गई और मेरे गले से लग गई और करीब १ घण्टे तक कुछ बोली ही नहीं।मुझे लगता है कि गुनगुन जैसे समझ गयी थी कि अब पूजा वाले दादाजी वापस नहीं आयेंगे और पूजा के समय उन से अपने बालसुलभ प्रश्न नहीं पूछ पायेगी,इसीलिये खामोश थी लेकिन आप बच्चे की चुप्पी से उसकी तकलीफ़ का अन्दाज़ा नहीं लगा सकते हैं,खै़र!
जब भी मुझे कुछ जानना होता और उनके साथ होता तो बहुत सवाल पूछता था और पता होता था कि जवाब मिलना तय है वैसे समस्या तब होती थी जब दूर होता था और फ़ोन या मोबाइल पर जवाब चाहिए होता था,अब हम जैसे आधुनिक लोग अगर मोबाइल का इस्तेमाल करें तो कोई समस्या नहीं होती पर उन जैसे लोगों को संभवतः दिक्कत होगी और वही होता भी था पर स्पीकरफ़ोन पर जवाब मिल जाता था।ऐसा कभी नहीं हुआ कि कुछ पूछा हो और जवाब नहीं मिला हो।
मानव की सहज प्रवृत्ति होती है कि अपने प्रिय के बिछड़ने भय बहुत ही ज़्यादा होता है भले ही वह प्रकट नहीं करे पर परोक्ष रूप से चिन्तित बहुत होता है।पर सारी चिन्ता,सारी दुआयें-मन्नतें धरी की धरी रह जाती हैं जब बुलावा आ जाता है।
५ अप्रैल की रात से ही बहुत परेशान थे,बड़ी बेचैनी थी वैसे बेचैन तो सुबह से ही थे पर शरीर में तकलीफ़ रात में शुरु हुई,दिन में१०-११ के आसपास बड़ीमाँ को बता दिया कि पैसे कहाँ रखे हैं(आपको जानकर बहुत आश्चर्य होगा कि मात्र ४०० रुपये थे उनके पास पर कभी अभाव में नहीं रहे माँ सबकुछ पूरा करती थीं)।मँझले पिताजी को एक किताब दी और कहा कि इसको जला देना नहीं तो इसका दुरुपयोग होगा,मँझले पिताजी तो बिल्कुल स्तब्ध रह गए क्योंकि वो तंत्र मन्त्रों की एक दुर्लभ और विलक्षण पुस्तक थी।पिताजी ने उनसे कहा कि जीवन का कोई भरोसा नहीं है ध्यान रखना कि इस पुस्तक का कोई दुरुपयोग नहीं हो।असल में उन्हें पूर्वाभास और स्वर-विज्ञान का भी बहुत अच्छा ज्ञान था तो संभवतः उन्हें पता लग गया था कि अब माता का बुलावा आ गया है।शरीर छोड़ने के करीब डेढ़ घण्टे पहले मेरी उनसे बात हुई थी शायद मेरी आवाज़ नहीं सुन पाए होंगे,थोड़े अस्फुट स्वर में कहा कि आवाज़ साफ़ नहीं आरही है,मैने उनसे कहा कि बाबूजी धीरज धरिये हमारे लिये!आप ठीक हो जायेंगे।पर पता नहीं ऐसा क्यों लगा कि जान-बूझकर कुछ नहीं बोले और लगातार माँ का नाम लेते रहे।
अन्तिम समय में मेरे गाँव का एक लड़का रन्जीत उनके साथ था उससे बातें करते रहे,चिर-निद्रा में लीन होने से करीब १५-२० मिनट पहले उससे कहा कि पता नहीं कौन सा ऐसा पाप है माँ जिस की सज़ा मुझे दे रही है कि मुझे तकलीफ़ होरही है,फ़िर उन्होंने रन्जीत से स्वामी रामकृष्ण परमहंस की कथा सुनाई और कहा कि जब उन जैसे महान् संत और माता के भक्त के गले में कैन्सर होगया था तो मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूँ मेरी क्या बिसात?फ़िर खामोश होगये और १५ मिनटों के बाद उसकी गोद में ही काया छोड़ दी।और उन्हीं के साथ हमारे कुल से अदम्य प्रतिभा और अतुल विद्वत्ता का अन्तिम अध्याय समाप्त होगया।ये वो विद्वान थे जो कि कहा करते थे-"आह्लादयति आनन्दम् यः सः अल्लाह-अर्थात् जो आनन्द को भी आनन्दित कर दे वो अल्लाह है।कितने महान् विचार हैं!
श्री केदारनाथ पाण्डेय जी भले ही इस संसार में नहीं रहे पर मुझे हमेशा उनकी कृपा और प्रेरणा अपने आस-पास महसूस होती है।हमेशा अच्छी शिक्षा दी हमेशा विद्वान बनने को कहा,भक्त बनने को कहा।२८ सालों से रविवार का व्रत चलता आरहा था संयोग देखिये कि व्रत नहीं टूटा बेशक़ जीवन की डोर टूट गई।६ अप्रैल २००८ रविवार का दिन उनके जीवन का अन्तिम दिन था,आश्चर्य है कि मैं इतना लिख पाया,इतना बता पाया।होना तो यह चाहिये कि जैसा सभी करते हैं मैं भी करता और उनके शव पर चिल्ला चिल्ला कर रोता पर इतने बड़े विद्वान और देवी के भक्त के लिये ये उचित श्रद्धाञ्जलि नहीं होती।ये एक सामान्य मृत्यु नहीं थी ये तो वो मृत्यु थी जिस पर देवता भी आँसू बहाते हैं,ऐसी मृत्यु का तो सम्मान होना चाहिये सिर्फ़ सम्मान!