एक कोशिश मिल बैठने की....

Friday, January 28, 2011

केदारनाथ पाण्डेय

मंच के सफल गायक कवि,मृदुभाषी और लगनशील श्री केदारनाथ पाण्डेय का जन्म बिहार के सीवान जिले में १५ नवम्बर सन् १९३५ ई० को एक मध्यम वर्गीय प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। आपके पिता साहित्याचार्य स्वर्गीय श्री सीताराम पाण्डेय संस्कृत के महान् विद्वान के रूप में विख्यात हैं।आपकी प्रारम्भिक शिक्षा श्री गोविन्द संस्कृत विद्यालय,ओझवलिया(मीरगंज)में हुई,जहाँ आपके पिताजी प्रधानाध्यापक थे।

तत्पश्चात् जब आपके पिताजी की नियुक्ति संस्कृत हाई स्कूल गोपालगंज के प्रधानाध्यापक के पद पर हुई तब आप भी गोपालगंज चले गए। और यहीं के आवास-काल में दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय से आपने साहित्याचार्य और हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से साहित्यरत्न की परीक्षाएँ पास की। शिक्षा समाप्ति के उपरान्त कई वर्षों तक मधुसूदन विद्यालय,छितौली सारण में और कुछ वर्षों तक महेन्द्र हाई स्कूल जीरादेई में आप अध्यापन कार्य करते रहे। और इसी दौरान भारतीय स्थल सेना में धर्मशिक्षक के पद पर आपकी नियुक्ति हुई और अगले १८-२० वर्षों तक वहाँ सेवा दी।पाण्डेय जी की काव्य-रचना १९५० से प्रारम्भ हुई और २००८ तक उन्होंने हिन्दी और भोजपुरी के सैकड़ों मर्मस्पर्शी गीतों की रचना की,जिनमें से अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।उनकी एक और कृति 'हिन्दी की ज्योति रेखा'(व्याकरण)प्रकाशित हुई है।।अभी हाल ही में आपकी एक कृति 'स्वप्न संगिनी' सम्पूर्ण हुई है और छपने वाली है।६०-६५ वर्षों की साहित्य साधना करने के बाद ६ अप्रैल २००८ रविवार को करीब ७४-७५ की अवस्था में आपका देहावसान हुआ.उनकी कुछ हिंदी और भोजपुरी की कवितायेँ पिछले वर्ष कविताकोश में प्रकाशित हुई हैं,जिसके लिए कविताकोश के संपादक जनविजय जी को बहुत बहुत धन्यवाद...........


रिमझिम रिमझिम गगन मगन हो मोती बरसा जाता ।

शतदल के दल दल पर ढलकर
नयन नयन के तल में पलकर

बरस- बरस कर तरसे तन को हरित भरित कर जाता ।

हिलती डुलती लचक डालियाँ
बजा रही हैं मधुर तालियाँ

बून्दों की फुलझड़ियों में वह,गीत प्रीत का गाता ।

हृदय- हृदय में तरल प्यास है
प्रिय के आगम का हुलास है

नभ का नव अनुराग राग इस भूतल तल पर आता ।

शुभ्रवला का बादल दल में
ज्यों विद्युत्‍ नभ-नव-घन-तल में

चाव भरे चातक के चित में चोट जगाये जाता ।

चहल-पहल है महल-महल में
स्वर्ग आ मिला धरती-तल में

पल-पल में तरुतृण खग-मृग का रूप बदलता जाता ।

बुझी प्यास संचित धरती की
फली आस पल-पल मरती की

सुख दुःख में हंसते रहना यह इन्दु बताता ।

नभ हो उठा निहाल सजल हो
तुहिन बिन्दुमय ज्यों शतदल हो

शीतल सुरभि समीर चूमकर सिहर- सिहर तन जाता ।

झूमी अमराई मदमाती
केकी की कल- कल ध्वनि लाती

अन्तर-तर के तार- तार कीं बादल बरस भिंगोता ।

भींगी दुनिया भींगा वन- वन
भींग उठा भौंरों का गुँजन

कुंज- कुंज में कुसुम पुंज में मधुमय स्वर बन जाता ।

Wednesday, January 26, 2011

रामधारी सिंह "दिनकर"

रामधारी सिंह "दिनकर" (२३ सितंबर १९०८- २४ अप्रैल १९७४) भारत में हिन्दी के एक प्रमुख लेखक. कवि, निबंधकार थे।राष्ट्र कवि दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रांत के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट कवि दिनकर की जन्मस्थली है। इन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता।

रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता पूर्व के विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है, तो दूसरी ओर कोमल श्रृँगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें कुरूक्षेत्र और उवर्शी में मिलता है।


जीवन परिचय

इनका जन्म २३ सितंबर १९०८ को सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था।पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गए। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपिनदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और इसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। उन्हें पदमविभूषण की से भी अलंकृत किया गया। पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कर प्रदान किये गए। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।

प्रमुख कृतियाँ
रश्मीरथी, ऊर्वशी(ज्ञानपीठ से सम्मानित),हुंकार, संस्कृति के चार अध्याय, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार, चक्रव्यूह, आत्मजयी, वाजश्रवा के बहाने।


ऊर्वशी को छोड़कर, दिनकरजी की अधिकतर रचनाएं वीर रस से ओतप्रोत है. उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है. भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि दिनकरजी गैर-हिंदीभाषियों के बीच हिंदी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे. उन्होंने कहा कि दिनकरजी अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे. हरिवंश राय बच्चन ने कहा कि दिनकरजी को एक नहीं, चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि उन्हें गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी भाषा की सेवा के लिए अलग-अगल ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जाना चाहिए. रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा कि दिनकरजी ने देश में क्रांतिकारी आंदोलन को स्वर दिया. नामवर सिंह ने कहा कि दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे. प्रसिद्ध साहित्यकार राजेंद्र यादव ने कहा कि दिनकरजी की रचनाओं ने उन्हें बहुत प्रेरित किया. प्रसिद्ध रचनाकार काशीनाथ सिंह ने कहा कि दिनकरजी राष्ट्रवादी और साम्राज्य-विरोधी कवि थे. उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की. एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया.. ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और संबंधों के इर्द-गिर्द धूमती है. उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अपसरा की कहानी है. वहीं, कुरुक्षेत्र, महाभारत के शांति-पर्व का कवितारूप है. यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गई. वहीं सामधेनी की रचना कवि के सामाजिक चिंतन के अनुरुप हुई है. संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर जी ने कहा कि सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है, क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है. दिनकरजी की रचनाओं के कुछ अंश-

रे रोक युधिष्ठर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर (हिमालय से)

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो (कुरूक्षेत्र से)

पत्थर सी हों मांसपेशियां लौहदंड भुजबल अभय नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय (रश्मिरथी से)

हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम जाते हैं दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते है.

सच पूछो तो सर में ही बसती दीप्ति विनय की संधि वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की सहनशीलता क्षमा दया को तभी पूजता जग है बल के दर्प चमकता जिसके पीछे जब जगमग है

सम्मान

दिनकरजी को उनकी रचना कुरूक्षेत्र के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार सम्मान मिला. संस्कृति के चार अध्याय के लिए उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया. भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया. भागलपुर विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने उन्हें डॉक्ट्रेट की मानध उपाधि से सम्मानित किया. गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिए चुना. 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया. वर्ष 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिए उन्हें ज्ञानपीठ सम्मानित किया गया. 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गए और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे.
मरणोपरांत सम्मान

30 सितंबर 1987 को उनकी 79वीं पुण्यतिथि पर तात्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें श्रद्धांजलित दी. 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किए. दिनकर जी की स्मृति में केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी ने उनकी जन्म शताब्दी के अवसर, रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृतित्व पुस्तक का विमोचन किया. इस किताब की रचना खगेश्वर ठाकुर ने की और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने इसका प्रकाशन किया. उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनकी भव्य प्रतिमा का अनावरण किया और उन्हें फूल मालाएं चढाई. कालीकट विश्वविद्यालय में भी इस अवसर को दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया.

दो न्याय अगर तो आधा दो, और, उसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!

लेकिन दुर्योधन

दुर्योधन वह भी दे न सका, आशीष समाज की ले न सका,

उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला।

हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,

डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले-

'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,

मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।

सब जन्म मुझी से पाते हैं,

फिर लौट मुझी में आते हैं।

यह देख जगत का आदि-अन्त, यह देख, महाभारत का रण,

मृतकों से पटी हुई भू है,

पहचान, कहाँ इसमें तू है।

(रश्मिरथी से)

Tuesday, January 25, 2011

भूषण

भूषण (1613-1705) रीतिकाल के तीन प्रमुख कवियों बिहारी, केशव और भूषण में से एक हैं। रीति काल में जब सब कवि श्रृंगार रस में रचना कर रहे थे, वीर रस में प्रमुखता से रचना कर के भूषण ने अपने को सबसे अलग साबित किया।

जीवन परिचय

कविवर भूषण का जीवन विवरण अभी तक संदिग्धावस्था में ही है। उनके जन्म मृत्यु, परिवार आदि के विषय में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार भूषण का जन्म संवत 1670 तदनुसार ईस्वी 1613 में हुआ। उनका जन्म स्थान कानपुर जिले में तिकवांपुर नाम का ग्राम बताया जाता है। उनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी था। वे काव्यकुब्ज ब्राह्मण थे।

भूषण के वास्तविक नाम का ठीक पता नहीं चलता। शिवराज भूषण ग्रंथ के निम्न दोहे के अनुसार भूषण उनकी उपाधि है जो उन्हें चित्रकूट के राज हृदयराम के पुत्र रुद्रशाह ने दी थी -

कुल सुलंकि चित्रकूट-पति साहस सील-समुद्र।

कवि भूषण पदवी दई, हृदय राम सुत रुद्र।।

कहा जाता है कि भूषण कवि मतिराम और चिंतामणी के भाई थे। एक दिन भाभी के ताना देने पर उन्होंने घर छोड़ दिया और कई आश्रम में गए। यहां आश्रय प्राप्त करने के बाद शिवाजी के आश्रम में चले गए और अंत तक वहीं रहे।

पन्ना नरेश छत्रसाल से भी भूषण का संबंध रहा। वास्तव में भूषण केवल शिवाजी और छत्रसाल इन दो राजाओं के ही सच्चे प्रशंसक थे। उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया है-

और राव राजा एक मन में न ल्याऊं अब।

साहू को सराहों कै सराहौं छत्रसाल को।।

संवत 1772 तदनुसार ईस्वी 1705 में भूषण परलोकवासी हो गए।
रचनाएं

* शिवराज भूषण,
* शिवा बावनी और
* छत्रसाल दर्शक - ये तीन भूषण के प्रसिध्द काव्य ग्रंथ हैं।

शिवराज भूषण में रीति कालीन प्रवृत्ति के अनुसार अलंकारों का विवेचन किया गया है। शिवा बावनी में शिवाजी के तथा छत्रसाल दशक में छत्रसाल के वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन है।

काव्यगत विशेषताएं

भूषण का युग असल में हिदुओं का युग था और निरीह हिंदू जनता अत्याचारों से पीड़ित थी। भूषण ने इस अत्याचार के विरुध्द आवाज़ उठाई तथा निराश हिंदू जन समुदाय को आशा का संबल प्रदान कर उसे संघर्ष के लिए उत्साहित किया।
युध्दों का सजीव चित्र

भूषण का युध्द वर्णन बड़ा ही सजीव और स्वाभाविक है। युध्द के उत्साह से युक्त सेनाओं का रण प्रस्थान युध्द के बाजों का घोर गर्जन, रण भूमि में हथियारों का घात-प्रतिघात, शूर वीरों का पराक्रम और कायरों की भयपूर्ण स्थिति आदि दृश्यों का चित्रण अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है। शिवाजी की सेना का रण के लिए प्रस्थान करते समय का एक चित्र देखिए -

साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि।

सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है।।

भूषन भनत नाद विहद नगारन के।

नदी नद मद गैबरन के रलत हैं।।

ऐल फैल खैल भैल खलक में गैल गैल,

गजन की ठेल-पेल सैल उसलत हैं।

तारा सों तरनि घूरि धरा में लIगत जिम,

धरा पर पारा पारावार ज्यों हलत हैं।

भाषा

भूषण ने अपने काव्य की रचना ब्रज भाषा में की। वे सर्वप्रथम कवि हैं जिन्होंने ब्रज भाषा को वीर रस की कविता के लिए अपनाया। वीर रस के अनुकूल उनकी ब्रज भाषा में सर्वत्र ही आज के दर्शन होते हैं।

भूषण की ब्रज भाषा में उर्दू, अरबी, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्दों की भरमार है। जंग, आफ़ताब, फ़ौज आदि शब्दों का खुल कर प्रयोग हुआ है। शब्दों का चयन वीर रस के अनुकूल है। मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग सुंदरता से हुआ है।

व्याकरण की अव्यवस्था, शब्दों को तोड़-मरोड़, वाक्य विन्यास की गड़बड़ी आदि के होते हुए भी भूषण की भाषा बड़ी सशक्त और प्रवाहमयी है। हां, प्राकृत और अपभ्रंश के शब्द प्रयुक्त होने से वह कुछ क्लिष्ट अवश्य हो गई है।
शैली

भूषण की शैली अपने विषय के अनुकूल है। वह ओजपूर्ण है और वीर रस की व्यंजना के लिए सर्वथा उपयुक्त है। अतः उनकी शैली को वीर रस की ओज पूर्ण शैली कहा जा सकता है। प्रभावोत्पादकता, चित्रोपमता, और सरसता भूषण की शैली की मुख्य विशेषताएं हैं।
रस

भूषण की कविता की वीर रस के वर्णन में भूषण हिंदी साहित्य में अद्वितीय कवि हैं। वीर के साथ रौद्र भयानक-वीभत्स आदि रसों को भी स्थान मिला है। भूषण ने श्रृंगार रस की भी कुछ कविताएं लिखी हैं, किंतु श्रृंगार रस के वर्णन ने भी उनकी वीर रस की एवं रुचि का स्पष्ट प्रभाव दीख पड़ता है -

न करु निरादर पिया सौ मिल सादर ये आए वीर बादर बहादुर मदन के
छंद

भूषण की छंद योजना रस के अनुकूल है। दोहा, कवित्ता, सवैया, छप्पय आदि उनके प्रमुख छंद हैं।
अलंकार

रीति कालीन कवियों की भांति भूषण ने अलंकारों को अत्यधिक महत्व दिया है। उनकी कविता में प्रायः सभी अलंकार पाए जाते हैं। अर्थालंकारों की उपेक्षा शब्दालंकारों को प्रधानता मिली है। यमक अलंकार का एक उदाहरण देखिए-

ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी,

ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहती है।

साहित्य में स्थान

भूषण का हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान हैं। वे वीर रस के अद्वितीय कवि थे। रीति कालीन कवियों में वे पहले कवि थे जिन्होंने हास-विलास की अपेक्षा राष्ट्रीय-भावना को प्रमुखता प्रदान की। उन्होंने अपने काव्य द्वारा तत्कालीन असहाय हिंदू समाज की वीरता का पाठ पढ़ाया और उसके समक्ष रक्षा के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। वे निस्संदेह राष्ट्र की अमर धरोहर हैं।
सारांश

* जन्म संवत तथा स्थान - 1613 तिकवांपुर जिला कानपुर।
* पिता - रत्नाकर त्रिपाठी।
* मृत्यु - संवत 1705।
* ग्रंथ - शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक।
* वर्ण्य विषय - शिवाजी तथा छत्रसाल के वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन।
* भाषा - ब्रज भाषा जिसमें अरबी, फ़ारसी, तुर्की बुंदेलखंडी और खड़ी बोली के शब्द मिले हुए हैं। व्याकरण की अशुध्दियां हैं और शब्द बिगड़ गए हैं।
* शैली - वीर रस की ओजपूर्ण शैली।
* छंद - कवित्त, सवैया।
* रस - प्रधानता वीर, भयानक, वीभत्स, रौद्र और श्रृंगार भी है।
* अलंकार - प्रायः सभी अलंकार हैं।

एक और टिप्पणी

भूषण का जन्म (1613-1715 ई.) कानपुर जिले के तिकवापुर ग्राम में हुआ था। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कहते हैं भूषण निकम्मे थे। एक बार नमक मांगने पर भाभी ने ताना दिया कि नमक कमाकर लाए हो? उसी समय इन्होंने घर छोड दिया और कहा 'कमाकर लाएंगे तभी खाएंगे। प्रसिध्द है कि कालांतर में इन्होंने एक लाख रुपए का नमक भाभी को भिजवाया। हिन्दू जाति का गौरव बढे और उन्नति हो यह इनकी अभिलाषा थी। इस कारण वीर शिवाजी को इन्होंने अपना आदर्श बनाया तथा उनकी प्रशंसा में कविता लिखी। चित्रकूट नरेश के पुत्र रुद्र सोलंकी ने भी इनकी कविता सराही और इन्हें 'भूषण की उपाधि दी। इनके प्रसिध्द ग्रंथ हैं- 'शिवराज भूषण, 'शिवा बावनी तथा 'छत्रसाल-दशक, जिनमें वीर, रौद्र, भयानक और वीभत्स रसों का प्रभावशाली चित्रण है। 'भूषण रीतिकाल के एकमात्र कवि हैं, जिन्होंने श्रृंगारिकता से हटकर वीरता और देशप्रेम के वर्णन से कविता को गौरव प्रदान किया।

कविताएं

इन्द्र जिमि जंभ पर, बाडब सुअंभ पर, रावन सदंभ पर, रघुकुल राज हैं।

पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर, ज्यौं सहस्रबाह पर राम-द्विजराज हैं॥

दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर, 'भूषन वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं।

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर, त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर शिवराज हैं॥

ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी, ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।

कंद मूल भोग करैं, कंद मूल भोग करैं, तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं॥

भूषन शिथिल अंग, भूषन शिथिल अंग, बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं।

'भूषन भनत सिवराज बीर तेरे त्रास, नगन जडातीं ते वे नगन जडाती हैं॥

छूटत कमान और तीर गोली बानन के, मुसकिल होति मुरचान की ओट मैं।

ताही समय सिवराज हुकुम कै हल्ला कियो, दावा बांधि परा हल्ला बीर भट जोट मैं॥

'भूषन' भनत तेरी हिम्मति कहां लौं कहौं किम्मति इहां लगि है जाकी भट झोट मैं।

ताव दै दै मूंछन, कंगूरन पै पांव दै दै, अरि मुख घाव दै-दै, कूदि परैं कोट मैं॥

बेद राखे बिदित, पुरान राखे सारयुत, रामनाम राख्यो अति रसना सुघर मैं।

हिंदुन की चोटी, रोटी राखी हैं सिपाहिन की, कांधे मैं जनेऊ राख्यो, माला राखी गर मैं॥

मीडि राखे मुगल, मरोडि राखे पातसाह, बैरी पीसि राखे, बरदान राख्यो कर मैं।

राजन की हद्द राखी, तेग-बल सिवराज, देव राखे देवल, स्वधर्म राख्यो घर मैं॥

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साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि।

सरजा सिवाजी जंग जीवन चलत है।।

भूषन भनत नाद विहद नगारन के।

नदी नद मद गैबरन के रलत हैं।।

ऐल फैल खैल भैल खलक में गैल गैल,

गाजन की ठेल-पेल सैल उसलत हैं।

तारा सों तरनि घूरि धरा में लगत जिम,

धारा पर पारा पारावार ज्यों हलत हैं।