एक कोशिश मिल बैठने की....

Tuesday, August 5, 2008

नायक




मेरे पिताजी कहा करते थे "ईश्वर जो कहते हैं वो करो और जो करते हैं वो मत करो क्योंकि तुम थक कर गिर जाओगे",मुझे ढेरों कहानियाँ सुनाते थे,गीताप्रेस में छपने वाली कुछ अच्छी किताबें लाकर देते थे कईयों के तो नाम आज भी बराबर याद हैं जैसे वीर-बालक,वीर बालाएं और जाने कितनी ही किताबें बस एक ही धुन थी उन्हें कि कैसे मेरे भीतर का बच्चा एक बहुत ही सभ्य और सुसंस्कृत इंसान बन जाये। मुझे नायकों की कहानियाँ सुनाया करते थे उन नायकों की जिन्होंने भारत को,भारत के नागरिकों को बदल कर रख दिया। मुझे भगत सिंह,नेताजी सुभाषचंद्र बोस,चंद्रशेखर आज़ाद सरीखे नायकों के बारे में बताया करते। तब मेरे भीतर का बच्चा उन जैसा इन्सान बनने को मचल उठता। समय बीता और वो बच्चा पुरुष बन गया पर उनके जैसा नहीं बन पाया जब कारण ढूँढने की कोशिश की तो समझ नहीं आया कि वो लोग आखिर किस मिट्टी के बने थे और मैं किस मिट्टी का कि उन जैसा नहीं बन सका।
आखिर नायक कौन है? आखिर क्या चीज़ें हैं जो हमें उनसे अलग करती हैं।क्या हम उनकी तलाश में किसी नतीजे तक पहुँच पाये हैं? यही ध्यान देने की बात है।
आज मैंने एक बहुत पुरानी तस्वीर देखी,जो चंद्रशेखर आज़ाद की थी और उनकी शहादत के बाद ली गयी होगी सारा दिन मेरा मन ऊहापोह में रहा। सोचता रहा पर समझ नही पाया कि आखिर आज़ाद किस मिट्टी के बने थे, कैसे संस्कार थे उनमें जो उन्हें हर मोड़ पर जीवन और मृत्यु के बीच की रहस्यमयी कड़ियों को खोलने और समझाने का करते थे।
आज हम जिस आज़ाद भारत के साये तले खुदको रोजी रोटी की भाग-दौड़ मे जिस तरह से मसरूफ़ कर चुके हैं वहाँ न तो हमारा नायक ही बचा है और न तो उसका आदर्श भारत!तब तो पिताजी कहना एकदम सही था कि ईश्वर जो कहते हैं वो करो और जो करते हैं वो मत करो,पर न तो हम ईश्वर,नायक या यों कहें युगपुरुष का कहा ही कर पाते हैं और उनका किया हुआ तो दोहराने की बात करना तो सूरज को दिया दिखाने जैसा है सो वह तो होने से रहा।
ईमानदारी से कहूँ तो आज़ाद के आदर्शों को अपने जीवन में आधा प्रतिशत भी उतार पाऊँ ये तो लगभग असम्भव सा दिखता है,आखिर मुझे नौकरी करनी है,पैसे कमाने हैं,पत्नी और बच्चों को पालना है,मेरे पास आज़ाद और आज़ाद के भारत के बारे में सोचने या समझने का समय ही कहाँ है।
और फ़िर मैं अकेला भी तो हूँ और अकेला चना भाड़ कहाँ फोड़ता है। बहुत ख़ूब!पता नहीं कितने लोग हैं जो मेरी ही तरह की सो़च रखते होंगे और जैसे बहाने मेरे पास हैं वैसे ही या उनसे कुछ बेहतर बहाने उनके पास भी होंगे,पर कमाल की बात है कि हमें ज़रा भी शर्मिंदगी नहीं होती क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे व्यक्तित्व का ह्रास दिन-प्रतिदिन के हिसाब से हो रहा है।
हमारा जीवन रोजी-रोटी की भागदौड़, नये अवसरों की तलाश,कम उम्र में ही भरपूर सुख-सुविधाओं की लालसा,एक दूसरे से आगे निकलने की कभी न खत्म होने वाली होड़,हाय पैसा!हाय पैसा!जो कि आज की बुनियादी जरूरतें हैं में उलझ चुका है। इस वजह से न तो हम अपना मूल्यांकन कर पारहे हैं और ना ही आज़ाद के पराधीन भारत का जिसमें कि हमारी छोटी से छोटी बातों को भी डन्डों और बूटों से दबा दिया जाता था। भारतीयता के लिये लिखना एक संगीन जुर्म हुआ करता था और आज़ादी तो एक सपना बन चुकी थी और वही आज आज़ाद का स्वतंत्र भारत हमारी आँखों के सामने है जिसमें सरकार के नुमाइन्दे संसद में रुपये की चीरहरण करते दिखते हैं, एकदूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता है, उसके बाद फ़िर सिलसिला शुरू होता है गालियों, लात-घूंसों, जूतों, कुर्सियों और माइक को एकदूसरे पर फेंकने का। और इसी बीच सभापति महोदय शान्त रहें शान्त रहें बोलते रह जाते हैं,ये बहुत ही शर्मनाक है और आज हिन्दुस्तान के हर हिस्से में यही हो रहा है बस अन्तर सिर्फ़ लोगों के स्तर का है। कोई संसद में बैठता है और कोई किसी बस्ती में रातें काली करता है। कमोबेश हर जगह यही हाल है! कार्यालय, मंच, रोड, हर जगह सरकार के नुमाइंदों को आम लोगों के सामने हाथ फैलाते देखा जा सकता है!हद तो यह है की शिक्षा के क्षेत्र में भी इन्ही हाथों का फैलाव स्पष्ट दिखता है!हम अच्छे व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों में जाने के लिए हम मुहमांगी माँगी कीमत देने को तैयार हैं।आज कल तो ऐसी ऐसी एजेंसी खुल चुकीं हैं की बस वहां आपको जा कर ये बताना होगा की आपको रेलवे में जाना है या क्लर्क ग्रेड में हाथ आजमाना है!बैंकिंग के लिए भी गुंजाईश है! बस सबकी अलग अलग कीमत है! वाह क्या बात है!क्या ऐसी शिक्षा और नौकरी पाने के इन तौर तरीकों से हम आजाद वाले संस्कार की उम्मीद भी कर सकते हैं?
अंत में इतना ज़रूर बोलूँगा की हम पिंजरों में बंद वो पंछी हैं जो बस दानों की लालच में अपने मालिक की राह तकते हैं! और उसका दिया दाना खा कर अपने इस बंदी जीवन को स्वीकार कर लेते हैं। पर जब पिंजरा टूटता है तो हम जैसे पंछियों में इतनी उर्जा नहीं बची होती है की खुले आसमान में एक छोटी उड़ान भी भर सकें।