एक कोशिश मिल बैठने की....

Thursday, April 22, 2010

कबीर



कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। भारत में धर्म, भाषा या संस्कृति किसी की भी चर्चा बिना कबीर की चर्चा के अधूरी ही रहेगी। कबीरपंथी, एक धार्मिक समुदाय जो कबीर के सिद्धांतों और शिक्षाओं को अपने जीवन शैली का आधार मानते हैं,

जीवन

काशी के इस अक्खड़, निडर एवं संत कवि का जन्म लहरतारा के पास सन् १३९८ में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ। जुलाहा परिवार में पालन पोषण हुआ, संत रामानंद के शिष्य बने और अलख जगाने लगे। कबीर सधुक्कड़ी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे। हिंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। कबीर की वाणी उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी में देखें जा सकते हैं। गुरु ग्रंथ साहब में उनके २०० पद और २५० साखियां हैं। काशी में प्रचलित मान्यता है कि जो यहॉ मरता है उसे मोक्ष प्राप्त होता है। रूढ़ि के विरोधी कबीर को यह कैसे मान्य होता। काशी छोड़ मगहर चले गये और सन् १५१८ के आस पास वहीं देह त्याग किया। मगहर में कबीर की समाधि है जिसे हिन्दू मुसलमान दोनों पूजते हैं।
मतभेद भरा जीवन


हिंदी साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व कबीर के सिवा अन्य किसी का नहीं है। कबीर की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया। उसी ने उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया। कतिपय कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति नामक देवाङ्गना के गर्भ से भक्तराज प्रहलाद ही संवत् १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को कबीर के रूप में प्रकट हुए थे।

कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

कबीर के ही शब्दों में- 'हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'।

अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदू-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयंगम कर लिया।

जनश्रुति के अनुसार उन्हें एक पुत्र कमाल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। ११९ वर्ष की अवस्था में उन्होंने मगहर में देह त्याग किया।
धर्म के प्रति

साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- 'मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।'उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।

कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड़ ने 'हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।
वाणी संग्रह

कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और साखी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं।यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं।

वे कभी कहते हैं-

'हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, 'हरि जननी मैं बालक तोरा'।

और कभी "बडा हुआ तो क्या हुआ जैसै"

उस समय हिंदू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।

वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं इसी क्रम में वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान् गोस्वामी के जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-

'बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान। करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'

वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ?

सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर असंवाद्य स्थिति में पड़ चुके हैं।

मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाजिर कर दी-

पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार। वा ते तो चाकी भली, पीसी खाय संसार।।

कबीर के राम

कबीर के राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में विराजते हैं। कबीर के राम इस्लाम के एकेश्वरवादी, एकसत्तावादी खुदा भी नहीं हैं। इस्लाम में खुदा या अल्लाह को समस्त जगत एवं जीवों से भिन्न एवं परम समर्थ माना जाता है। पर कबीर के राम परम समर्थ भले हों, लेकिन समस्त जीवों और जगत से भिन्न तो कदापि नहीं हैं। बल्कि इसके विपरीत वे तो सबमें व्याप्त रहने वाले रमता राम हैं। वह कहते हैं
व्यापक ब्रह्म सबनिमैं एकै, को पंडित को जोगी। रावण-राव कवनसूं कवन वेद को रोगी।
कबीर राम की किसी खास रूपाकृति की कल्पना नहीं करते, क्योंकि रूपाकृति की कल्पना करते ही राम किसी खास ढाँचे (फ्रेम) में बँध जाते, जो कबीर को किसी भी हालत में मंजूर नहीं। कबीर राम की अवधारणा को एक भिन्न और व्यापक स्वरूप देना चाहते थे। इसके कुछ विशेष कारण थे, जिनकी चर्चा हम इस लेख में आगे करेंगे। किन्तु इसके बावजूद कबीर राम के साथ एक व्यक्तिगत पारिवारिक किस्म का संबंध जरूर स्थापित करते हैं। राम के साथ उनका प्रेम उनकी अलौकिक और महिमाशाली सत्ता को एक क्षण भी भुलाए बगैर सहज प्रेमपरक मानवीय संबंधों के धरातल पर प्रतिष्ठित है।
कबीर नाम में विश्वास रखते हैं, रूप में नहीं। हालाँकि भक्ति-संवेदना के सिद्धांतों में यह बात सामान्य रूप से प्रतिष्ठित है कि ‘नाम रूप से बढ़कर है’, लेकिन कबीर ने इस सामान्य सिद्धांत का क्रांतिधर्मी उपयोग किया। कबीर ने राम-नाम के साथ लोकमानस में शताब्दियों से रचे-बसे संश्लिष्ट भावों को उदात्त एवं व्यापक स्वरूप देकर उसे पुराण-प्रतिपादित ब्राह्मणवादी विचारधारा के खाँचे में बाँधे जाने से रोकने की कोशिश की।
कबीर के राम निर्गुण-सगुण के भेद से परे हैं। दरअसल उन्होंने अपने राम को शास्त्र-प्रतिपादित अवतारी, सगुण, वर्चस्वशील वर्णाश्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के लिए ही ‘निर्गुण राम’ शब्द का प्रयोग किया–‘निर्गुण राम जपहु रे भाई।’ इस ‘निर्गुण’ शब्द को लेकर भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं। कबीर का आशय इस शब्द से सिर्फ इतना है कि ईश्वर को किसी नाम, रूप, गुण, काल आदि की सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता। जो सारी सीमाओं से परे हैं और फिर भी सर्वत्र हैं, वही कबीर के निर्गुण राम हैं। इसे उन्होंने ‘रमता राम’ नाम दिया है। अपने राम को निर्गुण विशेषण देने के बावजूद कबीर उनके साथ मानवीय प्रेम संबंधों की तरह के रिश्ते की बात करते हैं। कभी वह राम को माधुर्य भाव से अपना प्रेमी या पति मान लेते हैं तो कभी दास्य भाव से स्वामी। कभी-कभी वह राम को वात्सल्य मूर्ति के रूप में माँ मान लेते हैं और खुद को उनका पुत्र। निर्गुण-निराकार ब्रह्म के साथ भी इस तरह का सरस, सहज, मानवीय प्रेम कबीर की भक्ति की विलक्षणता है। यह दुविधा और समस्या दूसरों को भले हो सकती है कि जिस राम के साथ कबीर इतने अनन्य, मानवीय संबंधपरक प्रेम करते हों, वह भला निर्गुण कैसे हो सकते हैं, पर खुद कबीर के लिए यह समस्या नहीं है।
वह कहते भी हैं
“संतौ, धोखा कासूं कहिये। गुनमैं निरगुन, निरगुनमैं गुन, बाट छांड़ि क्यूं बहिसे!” नहीं है।


प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने कबीर के राम एवं कबीर की साधना के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है : " कबीर का सारा जीवन सत्‍य की खोज तथा असत्‍य के खंडन में व्‍यतीत हुआ। कबीर की साधना ‘‘मानने से नहीं, ‘‘जानने से आरम्‍भ होती है। वे किसी के शिष्‍य नहीं, रामानन्‍द द्वारा चेताये हुए चेला हैं।उनके लिए राम रूप नहीं है, दशरथी राम नहीं है, उनके राम तो नाम साधना के प्रतीक हैं। उनके राम किसी सम्‍प्रदाय, जाति या देश की सीमाओं में कैद नहीं है। प्रकृति के कण-कण में, अंग-अंग में रमण करने पर भी जिसे अनंग स्‍पर्श नहीं कर सकता, वे अलख, अविनाशी, परम तत्‍व ही राम हैं। उनके राम मनुष्‍य और मनुष्‍य के बीच किसी भेद-भाव के कारक नहीं हैं। वे तो प्रेम तत्‍व के प्रतीक हैं। भाव से ऊपर उठकर महाभाव या प्रेम के आराध्‍य हैं ः-

‘प्रेम जगावै विरह को, विरह जगावै पीउ, पीउ जगावै जीव को, जोइ पीउ सोई जीउ' - जो पीउ है, वही जीव है। इसी कारण उनकी पूरी साधना ‘‘हंस उबारन आए की साधना है। इस हंस का उबारना पोथियों के पढ़ने से नहीं हो सकता, ढाई आखर प्रेम के आचरण से ही हो सकता है। धर्म ओढ़ने की चीज नहीं है, जीवन में आचरण करने की सतत सत्‍य साधना है। उनकी साधना प्रेम से आरम्‍भ होती है। इतना गहरा प्रेम करो कि वही तुम्‍हारे लिए परमात्‍मा हो जाए। उसको पाने की इतनी उत्‍कण्‍ठा हो जाए कि सबसे वैराग्‍य हो जाए, विरह भाव हो जाए तभी उस ध्‍यान समाधि में पीउ जाग्रत हो सकता है। वही पीउ तुम्‍हारे अर्न्‍तमन में बैठे जीव को जगा सकता है। जोई पीउ है सोई जीउ है। तब तुम पूरे संसार से प्रेम करोगे, तब संसार का प्रत्‍येक जीव तुम्‍हारे प्रेम का पात्र बन जाएगा। सारा अहंकार, सारा द्वेष दूर हो जाएगा। फिर महाभाव जगेगा। इसी महाभाव से पूरा संसार पिउ का घर हो जाता है।

सूरज चन्‍द्र का एक ही उजियारा, सब यहि पसरा ब्रह्म पसारा।

जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है, बाहर भीतर पानी

फूटा कुम्‍भ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।"

माया महा ठगनी हम जानी।।

तिरगुन फांस लिए कर डोले

बोले मधुरे बानी।।



केसव के कमला वे बैठी

शिव के भवन भवानी।।

पंडा के मूरत वे बैठीं

तीरथ में भई पानी।।



योगी के योगन वे बैठी

राजा के घर रानी।।

काहू के हीरा वे बैठी

काहू के कौड़ी कानी।।



भगतन की भगतिन वे बैठी

बृह्मा के बृह्माणी।।

कहे कबीर सुनो भई साधो

यह सब अकथ कहानी।।

प्रस्तुत लेख विकिपीडिया से लिया गया है वहाँ जाने के लिए यहाँ क्लिक करें

Thursday, March 25, 2010

साहिर लुधियानवी::एक कालजयी प्रतिभा


साहिर लुधियानवी साहब(1921-1980): एक प्रसिद्ध शायर तथा गीतकार थे । इनका जन्म लुधियाना में हुआ था और इनकी कर्मभूमि लाहौर (चार उर्दू पत्रिकाओं का सम्पादन, 1948 तक) तथा बंबई (1949 के बाद) रही थी ।


साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हयी साहिर है। उनका जन्म 8 मार्च 1921 में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था। हँलांकि इनके पिता बहुत धनी थे पर माता-पिता में अलगाव होने के कारण उन्हें माता के साथ रहना पड़ा और गरीबी में गुजर करना पड़ा। साहिर की शिक्षा लुधियाना के खालसा हाई स्कूल में हुई। सन् 1939 में जब वे गव्हर्नमेंट कालेज के विद्यार्थी थे अमृता प्रीतम से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा । कॉलेज़ के दिनों में वे अपने शेरों के लिए ख्यात हो गए थे और अमृता इनकी प्रशंसक । लेकिन अमृता के घरवालों को ये रास नहीं आया क्योंकि एक तो साहिर मुस्लिम थे और दूसरे गरीब । बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कालेज से निकाल दिया गया। जीविका चलाने के लिये उन्होंने तरह तरह की छोटी-मोटी नौकरियाँ कीं।

सन् 1943 में साहिर लाहौर आ गये और उसी वर्ष उन्होंने अपनी पहली कविता संग्रह तल्खियाँ छपवायी। 'तल्खियाँ' के प्रकाशन के बाद से ही उन्हें ख्याति प्राप्त होने लग गई। सन् 1945 में वे प्रसिद्ध उर्दू पत्र अदब-ए-लतीफ़ और शाहकार (लाहौर) के सम्पादक बने। बाद में वे द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के भी सम्पादक बने और इस पत्रिका में उनकी किसी रचना को सरकार के विरुद्ध समझे जाने के कारण पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ वारण्ट जारी कर दिया। उनके विचार साम्यवादी थे । सन् 1949 में वे दिल्ली आ गये। कुछ दिनों दिल्ली में रहकर वे बंबई (वर्तमान मुंबई) आ गये जहाँ पर व उर्दू पत्रिका शाहराह और प्रीतलड़ी के सम्पादक बने।

फिल्म आजादी की राह पर (1949) के लिये उन्होंने पहली बार गीत लिखे किन्तु प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, जिसके संगीतकार सचिनदेव बर्मन थे, के लिये लिखे गीतों से मिली। फिल्म नौजवान का गाना ठंडी हवायें लहरा के आयें ..... बहुत लोकप्रिय हुआ और आज तक है। बाद में साहिर लुधियानवी ने बाजी, प्यासा, फिर सुबह होगी, कभी कभी जैसे लोकप्रिय फिल्मों के लिये गीत लिखे। सचिनदेव बर्मन के अलावा एन. दत्ता, शंकर जयकिशन, खैयाम आदि संगीतकारों ने उनके गीतों की धुनें बनाई हैं।

59 वर्ष की अवस्था में 25 अक्टूबर 1980 को दिल का दौरा पड़ने से साहिर लुधियानवी का निधन हो गया।

उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जितना ध्यान औरों पर दिया उतना खुद पर नहीं । वे एक नास्तिक थे तथा उन्होंने आजादी के बाद अपने कई हिन्दू तथा सिख मित्रों की कमी महसूस की जो लाहौर में थे । उनको जीवन में दो प्रेम असफलता मिली - पहला कॉलेज के दिनों में अमृता प्रीतम के साथ जब अमृता के घरवालों ने उनकी शादी न करने का फैसला ये सोचकर लिया कि साहिर एक तो मुस्लिम हैं दूसरे ग़रीब, और दूसरी सुधा मल्होत्रा से । वे आजीवन अविवाहित रहे तथा उनसठ वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया । उनके जीवन की तल्ख़ियां (कटुता) इनके लिखे शेरों में झलकती है । परछाईयाँ नामक कविता में उन्होंने अपने गरीब प्रेमी के जीवन की तरद्दुद का चित्रण किया है -

जवान रात के सीने पे दूधिया आँचल

मचल रहा है किसी ख्वाबे-मरमरीं की तरह

हसीन फूल, हसीं पत्तियाँ, हसीं शाखें

लचक रही हैं किसी जिस्मे-नाज़नीं की तरह

फ़िज़ा में घुल से गए हैं उफ़क के नर्म खुतूत

ज़मीं हसीन है, ख्वाबों की सरज़मीं की तरह


तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरतीं हैं

कभी गुमान की सूरत कभी यकीं की तरह

वे पेड़ जिन के तले हम पनाह लेते थे

खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह


इन्हीं के साए में फिर आज दो धड़कते दिल

खामोश होठों से कुछ कहने-सुनने आए हैं

न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से

ये सोते-जागते लमहे चुराके लाए हैं


यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही ज़माना था

यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी

धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से

हुजूरे-ग़ैब में नन्हीं सी इल्तिजा की थी

कि आरज़ू के कंवल खिल के फूल हो जायें

दिलो-नज़र की दुआयें कबूल हो जायें

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बचकर

नज़र झुकाये हुए और बदन चुराए हुए

खुद अपने कदमों की आहट से, झेंपती, डरती,

खुद अपने साये की जुंबिश से खौफ खाए हुए

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

रवाँ है छोटी-सी कश्ती हवाओं के रुख पर

नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है

तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से

मेरी खुली हुई बाहों में झूल जाता है

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में

तुम्हारी आँख मुसर्रत से झुकती जाती है

न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ

ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं

तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं

मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे

तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं।

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,

अदाए-अज्ज़ो-करम से उठ रही हो तुम

सुहाग-रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,

दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


वे लमहे कितने दिलकश थे वे घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,

वे सहरे कितने नाज़ुक थे वे लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं


बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया

हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया


नागाह लहकते खेतों से टापों की सदायें आने लगीं

बारूद की बोझल बू लेकर पच्छम से हवायें आने लगीं


तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया

हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया


मग़रिब के मुहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ खाकी वर्दी-पोश आये

इठलाते हुए मग़रूर आये, लहराते हुए मदहोश आये


खामोश ज़मीं के सीने में, खैमों की तनाबें गड़ने लगीं

मक्खन-सी मुलायम राहों पर बूटों की खराशें पड़ने लगीं


फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं

जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं


इनसान की कीमत गिरने लगी, अजनास के भाओ चढ़ने लगे

चौपाल की रौनक घटने लगी, भरती के दफ़ातर बढ़ने लगे


बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे

जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे



इन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई, बरनाई भी

माओं के जवां बेटे भी गये बहनों के चहेते भाई भी


बस्ती पे उदासी छाने लगी, मेलों की बहारें ख़त्म हुई

आमों की लचकती शाखों से झूलों की कतारें ख़त्म हुई


धूल उड़ने लगी बाज़ारों में, भूख उगने लगी खलियानों में

हर चीज़ दुकानों से उठकर, रूपोश हुई तहखानों में


बदहाल घरों की बदहाली, बढ़ते-बढ़ते जंजाल बनी

महँगाई बढ़कर काल बनी, सारी बस्ती कंगाल बनी


चरवाहियाँ रस्ता भूल गईं, पनहारियाँ पनघट छोड़ गईं

कितनी ही कंवारी अबलायें, माँ-बाप की चौखट छोड़ गईं


इफ़लास-ज़दा दहकानों के हल-बैल बिके, खलियान बिके

जीने की तमन्ना के हाथों, जीने ही के सब सामान बिके

कुछ भी न रहा जब बिकने को जिस्मों की तिजारत होने लगी

ख़लवत में भी जो ममनूअ थी वह जलवत में जसारत होने लगी

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


तुम आ रही हो सरे-आम बाल बिखराये हुये

हज़ार गोना मलामत का बार उठाये हुए

हवस-परस्त निगाहों की चीरा-दस्ती से

बदन की झेंपती उरियानियाँ छिपाए हुए

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


मैं शहर जाके हर इक दर में झाँक आया हूँ

किसी जगह मेरी मेहनत का मोल मिल न सका

सितमगरों के सियासी क़मारखाने में

अलम-नसीब फ़िरासत का मोल मिल न सका

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


तुम्हारे घर में क़यामत का शोर बर्पा है

महाज़े-जंग से हरकारा तार लाया है

कि जिसका ज़िक्र तुम्हें ज़िन्दगी से प्यारा था

वह भाई 'नर्ग़ा-ए-दुश्मन' में काम आया है

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


हर एक गाम पे बदनामियों का जमघट है

हर एक मोड़ पे रुसवाइयों के मेले हैं

न दोस्ती, न तकल्लुफ, न दिलबरी, न ख़ुलूस

किसी का कोई नहीं आज सब अकेले हैं

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

वह रहगुज़र जो मेरे दिल की तरह सूनी है

न जाने तुमको कहाँ ले के जाने वाली है

तुम्हें खरीद रहे हैं ज़मीर के कातिल

उफ़क पे खूने-तमन्नाए-दिल की लाली है

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे

चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे


उस शाम मुझे मालूम हुआ खेतों की तरह इस दुनियाँ में

सहमी हुई दोशीज़ाओं की मुसकान भी बेची जाती है


उस शाम मुझे मालूम हुआ, इस कारगहे-ज़रदारी में

दो भोली-भाली रूहों की पहचान भी बेची जाती है


उस शाम मुझे मालूम हुआ जब बाप की खेती छिन जाये

ममता के सुनहरे ख्वाबों की अनमोल निशानी बिकती है


उस शाम मुझे मालूम हुआ, जब भाई जंग में काम आये

सरमाए के कहबाख़ाने में बहनों की जवानी बिकती है


सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे

चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे


तुम आज ह्ज़ारों मील यहाँ से दूर कहीं तनहाई में

या बज़्मे-तरब आराई में

मेरे सपने बुनती होगी बैठी आग़ोश पराई में।


और मैं सीने में ग़म लेकर दिन-रात मशक्कत करता हूँ,

जीने की खातिर मरता हूँ,

अपने फ़न को रुसवा करके अग़ियार का दामन भरता हूँ।


मजबूर हूँ मैं, मजबूर हो तुम, मजबूर यह दुनिया सारी है,

तन का दुख मन पर भारी है,

इस दौरे में जीने की कीमत या दारो-रसन या ख्वारी है।


मैं दारो-रसन तक जा न सका, तुम जहद की हद तक आ न सकीं

चाहा तो मगर अपना न सकीं

हम तुम दो ऐसी रूहें हैं जो मंज़िले-तस्कीं पा न सकीं।


जीने को जिये जाते हैं मगर, साँसों में चितायें जलती हैं,

खामोश वफ़ायें जलती हैं,

संगीन हक़ायक़-ज़ारों में, ख्वाबों की रिदाएँ जलती हैं।


और आज इन पेड़ों के नीचे फिर दो साये लहराये हैं,

फिर दो दिल मिलने आए हैं,

फिर मौत की आंधी उट्ठी है, फिर जंग के बादल छाये हैं,


मैं सोच रहा हूँ इनका भी अपनी ही तरह अंजाम न हो,

इनका भी जुनू बदनाम न हो,

इनके भी मुकद्दर में लिखी इक खून में लिथड़ी शाम न हो॥


सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे

चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे॥


हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका,

मगर इन्हें तो मुरादों की रात मिल जाये।


हमें तो कश्मकशे-मर्गे-बेअमा ही मिली,

इन्हें तो झूमती गाती हयात मिल जाये॥


बहुत दिनों से है यह मश्ग़ला सियासत का,

कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जायें।


बहुत दिनों से है यह ख़ब्त हुक्मरानों का,

कि दूर-दूर के मुल्कों में क़हत बो जायें॥


बहुत दिनों से जवानी के ख्वाब वीराँ हैं,

बहुत दिनों से मुहब्बत पनाह ढूँढती है।


बहुत दिनों में सितम-दीद शाहराहों में,

निगारे-ज़ीस्त की इस्मत पनाह ढूँढ़ती है॥


चलो कि आज सभी पायमाल रूहों से,

कहें कि अपने हर-इक ज़ख्म को जवाँ कर लें।


हमारा राज़, हमारा नहीं सभी का है,

चलो कि सारे ज़माने को राज़दाँ कर लें॥


चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहें,

कि हम को जंगो-जदल के चलन से नफ़रत है।


जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आये,

हमें हयात के उस पैरहन से नफ़रत है॥


कहो कि अब कोई कातिल अगर इधर आया,

तो हर कदम पे ज़मीं तंग होती जायेगी।


हर एक मौजे हवा रुख बदल के झपटेगी,

हर एक शाख रगे-संग होती जायेगी॥


उठो कि आज हर इक जंगजू से कह दें,

कि हमको काम की खातिर कलों की हाजत है।


हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक नहीं,

हमें तो अपनी ज़मीं पर हलों की हाजत है॥


कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रुख न करे,

अब इस जा कोई कंवारी न बेची जाएगी।


ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फ़सलें,

अब इस जगह कोई क्यारी न बेची जायेगी॥


यह सर ज़मीन है गौतम की और नानक की,

इस अर्ज़े-पाक पे वहशी न चल सकेंगे कभी।


हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,

हमारे खून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी॥


कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहे,

तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं।


जुनूँ की ढाली हुई ऐटमी बलाओं से,

ज़मीं की खैर नहीं आसमाँ की खैर नहीं॥


गुज़श्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार,

अजब नहीं कि ये तनहाइयाँ भी जल जायें।


गुज़श्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार,

अजब नहीं कि ये परछाइयाँ भी जल जायें॥


हिन्दी (बॉलीवुड) फ़िल्मों के लिए लिखे उनके गानों में भी उनका व्यक्तित्व झलकता है । उनके गीतों में संजीदगी कुछ इस कदर झलकती है जैसे ये उनके जीवन से जुड़ी हों । उन्हें यद्यपि शराब की आदत पड़ गई थी पर उन्हें शराब (मय) के प्रशंसक गीतकारों में नहीं गिना जाता है । इसके बजाय उनका नाम जीवन के विषाद, प्रेम में आत्मिकता की जग़ह भौतिकता तथा सियासी खेलों की वहशत के गीतकार और शायरों में शुमार है ।

साहिर वे पहले गीतकार थे जिन्हें अपने गानों के लिए रॉयल्टी मिलती थी । उनके प्रयास के बावजूद ही संभव हो पाया कि आकाशवाणी पर गानों के प्रसारण के समय गायक तथा संगीतकार के अतिरिक्त गीतकारों का भी उल्लेख किया जाता था । इससे पहले तक गानों के प्रसारण समय सिर्फ गायक तथा संगीतकार का नाम ही उद्घोषित होता था ।


प्रस्तुत लेख विकिपीडिया से लिया गया है वहाँ जाने के लिए यहाँ क्लिक करें