एक कोशिश मिल बैठने की....

Saturday, July 7, 2007

मय

मेरा यही ख़याल है गो मैंने पी नहीं
कोई हसीं पिलाए तो यह शय बुरी नहीं

आते आते तेरे लब पर जो तबस्सुम बन जाये
उस अदा से कभी हमसे भी हो पैमान कोई


कमबख़्त ने शराब का ज़िक्र इस क़दर किया
वाइज़ के मुँह से आने लगी बू शराब की


आँचल ढला रहे मेरे मस्ते शबाब का
ओढ़ा गया कभी न दुपट्टा संभाल के


कोई मुँह चूम लेगा इस 'नहीं' पर
शिकन रह जायेगी यूँ ही जबीं पर


तबस्सुम : मुस्कान
पैमान : वादा
वाइज़ : धर्मोपदेशक
शिकन : त्योरी
जबीं : माथा

1 comment:

sunidhi said...

बहुत बेहतरीन लिखा है