एक कोशिश मिल बैठने की....

Friday, July 6, 2007

लज्जा


श्री जयशंकर प्रसाद जी की अन्यतम कृति ' कामायनी ' हिन्दी साहित्य का ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य का बेजोड़ महाकाव्य है।इसे आधुनिक हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ और रामचरितमानस के बाद दूसरा महान काव्य कहा गया है।इसी महाकाव्य कामायनी का लज्जा सर्ग प्रस्तुत कर रहा हूँ , इस उर्दू बहुल साहित्य समाज में हमारे हिन्दी साहित्य के कवियों की रचनाओं का स्मरण दिलाने का बस एक छोटा सा प्रयास है, यदि लज्जा पूरी पढें तो मैं ये समझूँगा कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ, आशा है मैं अपने प्रयास में सफल होऊँगा । और हाँ लिखने में हुई किसी प्रकार की अशुद्धि के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ

लज्जा
कोमल किसलय के अन्चल में नन्हीं कलिका ज्यों छिपती सी;
गोधूलि के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती सी ।

मन्जुल स्वप्नों की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों;
सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों ।

वैसी ही माया में लिपटी अधरों पर उँगली धरे हुए;
माधव ले सरस कुतूहल का आँखों मे पानी भरे हुए ।

नीरव निशीथ में लतिका सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती ?
कोमल बाहें फैलाये सी आलिंगन का जादू पढ़ती!

किन इन्द्रजाल के फूलों से लेकर सुहाग कण राग भरे ;
सिर नीचा कर हो गूँथ रही माला जिससे मधु धार ढरे?

पुलकित कदंब की माला सी पहना देती हो अन्तर में ;
झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में ।

वरदान सदृश हो डाल रही नीली किरनों से बुना हुआ;
यह अंचल कितना हलका सा कितने सौरभ से सना हुआ ।

सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ ;
मैं सिमट रही सी अपने में परिहास गीत सुन पाती हूं ।

स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भर कर बाँकपना ;
प्रत्य्क्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना ।

मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा ;
अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता सा डोल रहा ।

अभिलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के स्वागत को ;
जीवन भर के बल वैभव से सत्कृत करती दूरागत को ।

किरनों का रज्जु समेट लिया जिसका अवलंबन ले चढ़ती ;
रस के निर्झर से धँस कर मैं आनन्द शिखर के प्रति बढ़ती ।

छूने में हिचक, देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं ;
कलरव परिहास भरी गूँजें अधरों तक सहसा रुकती हैं ।

संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजती खड़ी रही ;
भाषा बन भौंहों की काली रेखा भ्रम में पड़ी रही ।

तुम कौन ? हृदय की परवशता ? सारी स्वतंत्रता छीन रहीं ;
स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवन वन से हो बीन रहीं !"

संध्या की लाली में हँसती, उसका ही आश्रय लेती सी ;
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती सी ।

"इतना न चमत्कृत हो बाले! अपने मन का उपकार करो ;
मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच विचार करो ।

अंबर-चुम्बी हिम श्रृंगों से कलरव कोलाहल साथ लिये ;
विद्युत की प्राणमयी धारा बहती जिसमें उन्माद लिये ।

मंगल कुंकुम कि श्री जिसमें निखरी हो ऊषा की लाली ;
भोला सुहाग इठलाता सा हो ऐसी जिसमें हरियाली ।

हो नयनों का कल्याण बना आनंद सुमन सा विकसा हो ;
वासंती के वन-वैभव में जिसका पंचम स्वर पिक सा हो ।

जो गूँज उठे फिर नस नस मे मूर्च्छना समान मचलता सा ;
आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता सा ।

नयनों की नीलम की घाटी जिस रस घन से छा जाती हो ;
वह कौंध कि जिससे अंतर की शीतलता ठंढक पाती हो ।

हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का गोधूली की सी ममता हो ;
जागरण प्रात सा हँसता हो जिसमें मध्याह्न निखरता हो ।

हो चकित निकल आई सहसा जो अपने प्राची के घर से ;
उस नवल चन्द्रिका सा बिछले जो मानस की लहरों पर से ।

फूलों की कोमल पंखड़ियाँ बिखरें जिनके अभिनन्दन में ;
मकरन्द मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में ।

कोमल किसलय मर्मर रव से जिसका जय घोष सुनाते हों ;
जिसमें दुख सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों ।

उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं ;
जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं ।

मैं उसी चपल की धात्री हूँ गौरव महिमा हूँ सिखलाती ;
ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती।

मैं देव सृ्ष्टि की रति रानी निज पंचवाण से वंचित हो ;
बन आवर्जना मूर्ति दीना अपनी अतृप्ति सी संचित हो ।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में अपनी अतीत असफलता सी ;
लीला विलास की खेद भरी अवसाद मयी श्रम दलिता सी ।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ ;
मतवाली सुंदरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ ।

लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती ;
कुंचित अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बन कर जगती ।

चंचल किशोर सुंदरता की मैं करती रहती रखवाली ;
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली ।

"हाँ ठीक,परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है ;
इस निविड़ निशा में संसृति की आलोकमयी रेखा क्या है?

यह आज समझ तो पायी हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ ;
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सब से हारी हूँ ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है !
घनश्याम खंड सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है !

सर्वस्व समर्पण करने की विश्वास महा तरु छाया में ;
चुपचाप पड़ी रहने कीक्यों ममता जगती है माया में ?

छायापथ में तारक द्युति सी झिलमिल करने की मधु लीला ;
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम शीला ?

निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में ;
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में ।

नारी जीवन का चित्र यही क्या ? विकल रंग भर देती हो ;
अस्फुट रेखा की सीमा में; आकार कला को देती हो ।

रुकती हूँ और ठहरती हूँ पर सोच विचार न कर सकती ;
पगली सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदिन बकती ।

मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ;
भुज लता फँसा कर नर तरु से झूले सी झोंके खाती हूँ ।

इस अर्पण मे कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है ;
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ इतना ही सरल झलकता है ।"

"क्या कहती हो ठहरो नारी ! संकल्प अश्रु जल से अपने ;
तुम दान कर चुकीं पहले ही जीवन के सोने से सपने ।

नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में ;
पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ।

देवों की विजय,दानवों की हारों का होता युद्ध रहा ;
संघर्ष सदा उर अंतर में जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा ।

आँसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ लिखना होगा ;
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह सन्धि-पत्र लिखना होगा ।"


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