एक कोशिश मिल बैठने की....

Friday, July 6, 2007

कोई घर ऐसा भी था

रुख बदलते हि्चकिचाते थे कि डर ऐसा भी था
हम हवा के साथ चलते थे मगर ऐसा भी था

लौट आतीं थीं पिछ्ले कई पतों की चिट्ठियां
घर बदल देते थे बाशिन्दे नगर ऐसा भी था

वो किसी का भी न था लेकिन सबका मोतबर
कोई क्या जाने कि उसमें हुनर ऐसा भी था

खुद से ग़ाफ़िल हो के पल भर न खुद को सोचता
इस भरी बस्ती में कोई बेखबर ऐसा भी था

हर नई रुत बदल जाती तख़्ती नाम की
जिसको हम अपना समझते कोई घर ऐसा भी था

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