एक कोशिश मिल बैठने की....

Monday, July 9, 2007

डरते हैं हर चराग़ की रौशनी से हम

रखते नहीं हैं बैर किसी आदमी से हम

फ़िर भी हैं अपने शहर में अजनबी से हम

देखा है जलते जबसे ग़रीबों का आशियाँ

डरते हैं हर चराग़ की रौशनी से हम

हम बोलते नहीं तो समझो न बेज़बान

हैं अपने घर की बात कहें क्यूँ किसी से हम

तेरी खुशी का आज भी इतना खयाल है

लेते नहीं हैं साँस भी अपनी ख़ुशी से हम

समझेगा तब कहीं वो समान दर हमारा दुख

अश्कों की दें मिसाल जो बहती नदी से हम

या तो हमारी नज़रों का सारा कुसूर है

या दूर हो गये हैं बहुत रौशनी से हम

1 comment:

Monika (Manya) said...

अच्छी लगी.. पर उतनी बेहतरीन नहीं.. लगा काफ़िये मिलाने पर ज्यादा जोर है... भाव कम लगे.. कोरे अल्फ़ाज़ ज्यादा...