Tuesday, July 24, 2007
कल और आज
कल भी बादल छाये थे
और कवि ने सोचा था
बादल,ये आकाश के सपने उन ज़ुल्फ़ों के साये हैं
दोशे-हवा पर मैख़ाने की मैख़ाने घिर आये हैं
रुत बदलेगी फ़ूल खिलेंगे झोंके मधु बरसायेंगे
उजले उजले खेतों में रंगीं आचल लहरायेंगे
चरवाहे बंसी की धुन से गीत फ़ज़ा में बोयेंगे
आमों के झुंडों के नीचे परदेसी दिल खोयेंगे
पैंग बढ़ाती गोरी के माथे से कौंदे लपकेंगे
जोहड़ के ठहरे पानी में तारे आँखें झपकेंगे
उलझी उलझी राहों में वो आँचल थामे आयेंगे
धरती,फ़ूल,आकाश,सितारे सपना सा बन जायेंगे
कल भी बूंदें बरसीं थीं
कल भी बादल छाये थे
और कवि ने सोचा था
आज भी बूंदें बरसेंगीं
आज भी बादल छाये हैं
और कवि इस सोच में है
बस्ती पर बादल छाये हैं,पर ये बस्ती किसकी है
धरती पर अमृत बरसेगा लेकिन ये धरती किसकी है
हल जोतेगी खेतों में अल्हड़ टोली दहक़ानों की
धरती से फ़ूटेगी मेहनत फ़ाक़ाकश इन्सानों की
फ़सलें काट के मेहनतकश ग़ल्ले के ढेर लगायेंगे
जागीरों के मालिक आकर सब पूँजी ले जायेंगे
बूढ़े दहक़ानों के घर बनिये की कुर्की़ आयेगी
और क़र्ज़े के सूद में कोई गोरी बेची जायेगी
आज भी जनता भूकी है और कल भी जनता तरसी थी
आज भी रिमझिम बरखा होगी कल भी बारिश बरसी थी
आज भी बूंदें बरसेंगीं
आज भी बादल छाये हैं
और कवि इस सोच में है
दोश - ग़ुज़री हुई रात
दहक़ाने - किसान लोग
Saturday, July 21, 2007
अजब सुरूर मिला है
के मुस्कुराया है खुदा भी सितारा वा करके
गदागरी भी एक अस्लूबे फन है जब मैंने
उसी को माँग लिया उससे इल्तिजा करके
शब्बे फ़िराक़ के ज़ब्र को शिक़स्त हुई
के मैने सुबह तो कर ली खुदा खुदा करके
यह सोच कर कि कभी तो जवाब आएगा
मैं उसके दर पे खड़ा रह गया सदा कर के
यह चारागार हैं की इज़्तिमाये बदज़ौक़ा
वह मुझको देखें तेरी ज़ात से जुदा करके
खुदा भी उनको ना बख़्शे तो लुत्फ़ आ जाए
जो अपने आप से शर्मिन्दा हों खता करके
आफ़ताब सर पर आ गया
मिला नहीं तो क्या हुअ वह शक्ल तो दिखा गया
जुदाइयों के ज़ख़्म दर्दे ज़िन्दगी ने भर दिए
उसे भी नीन्द आगई मुझे भी सब्र आगया
वह दोस्ती तो ख़ैर अब नसीबे दुश्मनां हुई
वह छोटी-छोटी रन्जिशों का लुत्फ़ भी चला गया
यह सुबह की सफ़ेदियाँ यह दोपहर की ज़र्दियाँ
मैं आइने में ढूँढता हूँ मैं कहाँ चला गया
यह किस ख़ुशी की रेत पर ग़मों को नीन्द आ गई
वह लहर किस तरफ़ गई,यह मैं कहाँ समा गया
जो और कुछ नहीं तो कोई ताज़ा दर्द ही मिले
मैं एक ही तरह की ज़िन्दगी से तंग आ गया
गये दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
अलम कशो ! उठो कि आफ़ताब सर पर आ गया
वेदना की बाँसुरी
आगये कुछ लोग सड़कों पर भुजंगों की तरह
सूर्य से लड़ने की जो करते हैं बातें रात भर
लुप्त हो जाते हैं वो दिन में पतंगों की तरह
वे अचानक ही कहानी के कथानक हो गये
और हम छपते रहे केवल प्रसंगों की तरह
वेदना की बाँसुरी को किस तरह सुन पाओगे
हर समय बजते रहोगे यदि मृदंगों की तरह
हम नहीं गन्तव्य तक पहुँचे तो कोई गम नहीं
पर न हम बैसाखियाँ लेगें अपंगों की तरह
Monday, July 16, 2007
"सम्पादक की वाणी"
जन-जन को झकझोर ज़ोर से रोज़ जगाने वाली
स्वयं बनी मार्जनी स्वरूपा "सम्पादक की वाणी"
भारत और भारती की जाग्रत वाणी कल्याणी
अपनी श्वेत प्रभा से भाषा से नवराष्ट्र विधात्री
सम्पादन की शुचि रुचि से जन जन की प्राण प्रदात्री
मनुज मनुज को यह प्रदीप्त देवत्व प्रदान करेगी
जीवन में यज्ञीय-प्रतिष्टा प्रद सम्मान वरेगी
सम्पादक की वाणि! देवि! यह अभिनन्दन है मेरा
शाक्त शक्ति जाग्रत कर दो तम हर दो हँसे सवेरा
दूजा रंग रास न आए
सब अपने रंग नहाए,
दूजा रंग रास न आए,
ना फाग जगा , न धमार उठी, न चंग असर करता है,
आँखों के सहस ठिकाने तन-ताप लगे झुलसाने,
ये देह बने जलजात हठात अनंग असर करता है,
रंग श्यामल मधुर मिठौना,
निर्गुण हो सगुण सलौना,
साखी, बानी, कविता, पद और अभंग असर करता है,
अबके वह रंग लगाना,
बन जाये जग 'बरसाना',
उत्सव का उज्ज्वल रंग मगर सबसंग असर करता है
Tuesday, July 10, 2007
ये छोटा बच्चा
माँ की गोद में छोटा बच्चा
ये बहुत दूर है गुनाहों की लज़्ज़त से अभी
अभी इसने झूठ बोलना नहीं सीखा
न ये जानता है अपना मज़हब
न इसने लोगों को लड़ते देखा है
न इसने बेइमानी देखी
न इसने नफ़रत,न जुल्म,न ग़द्दारी देखी
अभी ये दुनियादारी नहीं समझता
अभी तो चाँद मांगता है ये
अपनी माँ तक ही दुनिया जानता है ये
कल ये बड़ा होगा
झूठ बोलना सीख जायेगा
गुनाह इसे आराम देंगे
नफ़रत,जुल्म,ग़द्दारी
मज़हब हो जायेंगे इसके
ये दुनियावालों की तरह खुदग़रज़ हो जायेगा
ऐ ख़ुदा काश
ये छोटा बच्चा
यूँ ही छोटा रहे
हमेशा
Monday, July 9, 2007
ज़रा सा मुस्कुराओ ना
वह इस क़दर तवील है
ग़ज़ब तो ये है यह एक नहीं
फ़सील दर फ़सील है
तुम इसकी हर मुंडेर पर
आरजूओं के तेल से
चरागे दिल जलाओ ना
ज़रा सा मुस्कुराओ ना
वो फ़िर से याद आ गया
जो रूठ कर चला गया
उसे ख़याल भी नहीं
किसी का दिल दुखा गया
अब उसकी मीठी याद में
शबों को जाग जाग कर
ये रतजगे मनाओ ना
थोड़ा सा मुस्कुराओ ना
ये ग़म हमेशा आएँगे
ये दिल यूँ ही जलाएँगे
मगर ख़ुशी के आते ही
ये ग़म भी भूल जाएँगे
मलूल होगे ग़म से तुम
ज़रा फिर अपनी पलकों पे
सितारे झिलमिलाओ ना
ये आँसू मुझको सौंप के
ज़रा सा मुस्कुराओ ना
दिल की बातें
उम्र भर होठों पे अपने मैं ज़बान फेरा
मैं तो फ़िर आप में रहता नहीं,दिल से
आगे फ़िर भींच के छाती से लगाने का मज़ा
दे के बोसा मुझे चितवन में जताता है वो शोख़
ऐसा पाया है तूने मज़ा कहीं और
क्या रुक के वो कहे है जो टक उससे लग चलूँ
बस बस परे हो, शौक़ ये अपने तईँ नहीं
ज़िन्दगी भी तो देता है मारने वाला
बहुत अजीज़ है मुश्किल में डालने वाला
नयी सहर के दिलासों के बीच
छोड़ गया हथेलियों से सूरज निकालने वाला
चहार सम्मत से अब धूप के अज़ाब में है
वो सायादार दरख्तों को काटने वाला
तेरा करम जो नवाज़े
तो मै भी बन जाऊँ
इबादतों मे तेरी दिन गुज़ारने वाला
तेरी अताएँ तो सभी को नवाज़ने वालीं
मैं साहिलों को भँवर से पुकारने वाला
दिया है ग़म
तो ज़िन्दगी भी तो देता है मारने वाला
डरते हैं हर चराग़ की रौशनी से हम
फ़िर भी हैं अपने शहर में अजनबी से हम
देखा है जलते जबसे ग़रीबों का आशियाँ
डरते हैं हर चराग़ की रौशनी से हम
हम बोलते नहीं तो समझो न बेज़बान
हैं अपने घर की बात कहें क्यूँ किसी से हम
तेरी खुशी का आज भी इतना खयाल है
लेते नहीं हैं साँस भी अपनी ख़ुशी से हम
समझेगा तब कहीं वो समान दर हमारा दुख
अश्कों की दें मिसाल जो बहती नदी से हम
या तो हमारी नज़रों का सारा कुसूर है
या दूर हो गये हैं बहुत रौशनी से हम
Sunday, July 8, 2007
कोई बहुत उदास रहता है
कोई आज भी तुम बिन
हिज्र की झुलसती दोपहरों में सुलगता है
हब्स ज़दा रातों में
पलकों से तारे गिनता है
शाम के उदास लम्हों में
दरिया किनारे बैठकर तुम्हें याद करता है
अक्सर दरख्तों पर तुम्हारा नाम लिखता
और मिटाता रहता है
हवाओं से तुम्हारी बात करता है
तुम्हें लौट आने को कहता है
कोई तुमसे बिछड़ कर
बहुत उदास रहता है!
Saturday, July 7, 2007
वो कौन था ?
मेरी तस्वीर का सर काट रहा है
ज़ालिम तुझे ये भी नही मालूम की अब तक
कोई तेरे हिस्से का सफ़र काट रहा है
ये बात अलग है कोई मक़सद ना हो हासिल
हर शख्स को हर शख्स मगर काट रहा है
वो अपनी निगाहों के इशारे से बराबर
हर देखने वाले की नज़र काट रहा है
वो कौन था ये है उसको गरज़ क्या
ज़ल्लाद तो बस हुक़म पे सर काट रहा है
मय
कोई हसीं पिलाए तो यह शय बुरी नहीं
आते आते तेरे लब पर जो तबस्सुम बन जाये
उस अदा से कभी हमसे भी हो पैमान कोई
कमबख़्त ने शराब का ज़िक्र इस क़दर किया
वाइज़ के मुँह से आने लगी बू शराब की
आँचल ढला रहे मेरे मस्ते शबाब का
ओढ़ा गया कभी न दुपट्टा संभाल के
कोई मुँह चूम लेगा इस 'नहीं' पर
शिकन रह जायेगी यूँ ही जबीं पर
पैमान : वादा
वाइज़ : धर्मोपदेशक
शिकन : त्योरी
जबीं : माथा
Friday, July 6, 2007
कुछ रचनाएं दुष्यंत कुमार की
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ
यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं सभी नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है कि
इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ
कई फ़ाके बिताकर मर गया जो उस के बारे में
यहाँ पर सिर्फ़ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा
चलो अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें
कम से कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा
मत कहो, आकाश में कुहरा घना
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे सूर्य को क्या देखना है
इस सडक पर इस कदर कीचड बिछी है
हर किसी का पांव घुटने तक सना है
पक्ष और प्रतिपक्ष संसद में मुखर है
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से खून में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है
हो गई है घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है
दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं
आजकल नेपथ्य में संभावना है.
बहुत खूब दोस्त
मुझे विश्वास था कि वह कुछ अच्छा करेगा . दरअसल शुरू से ही उसमें बेहतर करने की बहुत गुंजाइश थी. शुक्र है कि ऐसा ही हुआ. यह भले ही एक छोटा प्रयास दिखता हो, मगर मैं इसे एक शुरूआत के रूप में देखता हूं. अभी तो इस सफर में कई पड़ाव आएंगे, कुछ इक्की दुक्की दिक्कतें भी पेश आएंगी, मगर वो सदा बेहतर करता रहे यही कामना है, और यही दुआ भी । इसलिए नहीं के वो अच्छा दोस्त है, वह इसलिए क्योंकि वह वाकई बहुत मायनों में कईयों से कई दर्जे बेहतर है। एक बेहतर इंसान है। इन उधार ली गई कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियों के साथ अनुमति चाहूंगा ।
गहन सघन मनमोहक वन तक
मुझको आज बुलाते हैं
परंतु किए जो वादे मैंने
याद मुझे आ जाते हैं
अभी कहां आराम बदा
यह मूक निमंत्रण छलना है
अभी मीलों मुझको चलना है
अभी मीलों तुझको चलना है
अभी मीलों हमको चलना है
अभय
लज्जा

श्री जयशंकर प्रसाद जी की अन्यतम कृति ' कामायनी ' हिन्दी साहित्य का ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य का बेजोड़ महाकाव्य है।इसे आधुनिक हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ और रामचरितमानस के बाद दूसरा महान काव्य कहा गया है।इसी महाकाव्य कामायनी का लज्जा सर्ग प्रस्तुत कर रहा हूँ , इस उर्दू बहुल साहित्य समाज में हमारे हिन्दी साहित्य के कवियों की रचनाओं का स्मरण दिलाने का बस एक छोटा सा प्रयास है, यदि लज्जा पूरी पढें तो मैं ये समझूँगा कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ, आशा है मैं अपने प्रयास में सफल होऊँगा । और हाँ लिखने में हुई किसी प्रकार की अशुद्धि के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ
गोधूलि के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती सी ।
मन्जुल स्वप्नों की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों;
सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों ।
वैसी ही माया में लिपटी अधरों पर उँगली धरे हुए;
माधव ले सरस कुतूहल का आँखों मे पानी भरे हुए ।
नीरव निशीथ में लतिका सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती ?
कोमल बाहें फैलाये सी आलिंगन का जादू पढ़ती!
किन इन्द्रजाल के फूलों से लेकर सुहाग कण राग भरे ;
सिर नीचा कर हो गूँथ रही माला जिससे मधु धार ढरे?
पुलकित कदंब की माला सी पहना देती हो अन्तर में ;
झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में ।
वरदान सदृश हो डाल रही नीली किरनों से बुना हुआ;
यह अंचल कितना हलका सा कितने सौरभ से सना हुआ ।
सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ ;
मैं सिमट रही सी अपने में परिहास गीत सुन पाती हूं ।
स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भर कर बाँकपना ;
प्रत्य्क्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना ।
मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा ;
अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता सा डोल रहा ।
अभिलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के स्वागत को ;
जीवन भर के बल वैभव से सत्कृत करती दूरागत को ।
किरनों का रज्जु समेट लिया जिसका अवलंबन ले चढ़ती ;
रस के निर्झर से धँस कर मैं आनन्द शिखर के प्रति बढ़ती ।
छूने में हिचक, देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं ;
कलरव परिहास भरी गूँजें अधरों तक सहसा रुकती हैं ।
संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजती खड़ी रही ;
भाषा बन भौंहों की काली रेखा भ्रम में पड़ी रही ।
तुम कौन ? हृदय की परवशता ? सारी स्वतंत्रता छीन रहीं ;
स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवन वन से हो बीन रहीं !"
संध्या की लाली में हँसती, उसका ही आश्रय लेती सी ;
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती सी ।
"इतना न चमत्कृत हो बाले! अपने मन का उपकार करो ;
मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच विचार करो ।
अंबर-चुम्बी हिम श्रृंगों से कलरव कोलाहल साथ लिये ;
विद्युत की प्राणमयी धारा बहती जिसमें उन्माद लिये ।
मंगल कुंकुम कि श्री जिसमें निखरी हो ऊषा की लाली ;
भोला सुहाग इठलाता सा हो ऐसी जिसमें हरियाली ।
हो नयनों का कल्याण बना आनंद सुमन सा विकसा हो ;
वासंती के वन-वैभव में जिसका पंचम स्वर पिक सा हो ।
जो गूँज उठे फिर नस नस मे मूर्च्छना समान मचलता सा ;
आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता सा ।
नयनों की नीलम की घाटी जिस रस घन से छा जाती हो ;
वह कौंध कि जिससे अंतर की शीतलता ठंढक पाती हो ।
हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का गोधूली की सी ममता हो ;
जागरण प्रात सा हँसता हो जिसमें मध्याह्न निखरता हो ।
हो चकित निकल आई सहसा जो अपने प्राची के घर से ;
उस नवल चन्द्रिका सा बिछले जो मानस की लहरों पर से ।
फूलों की कोमल पंखड़ियाँ बिखरें जिनके अभिनन्दन में ;
मकरन्द मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में ।
कोमल किसलय मर्मर रव से जिसका जय घोष सुनाते हों ;
जिसमें दुख सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों ।
उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं ;
जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं ।
मैं उसी चपल की धात्री हूँ गौरव महिमा हूँ सिखलाती ;
ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती।
मैं देव सृ्ष्टि की रति रानी निज पंचवाण से वंचित हो ;
बन आवर्जना मूर्ति दीना अपनी अतृप्ति सी संचित हो ।
अवशिष्ट रह गई अनुभव में अपनी अतीत असफलता सी ;
लीला विलास की खेद भरी अवसाद मयी श्रम दलिता सी ।
मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ ;
मतवाली सुंदरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ ।
लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती ;
कुंचित अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बन कर जगती ।
चंचल किशोर सुंदरता की मैं करती रहती रखवाली ;
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली ।
"हाँ ठीक,परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है ;
इस निविड़ निशा में संसृति की आलोकमयी रेखा क्या है?
यह आज समझ तो पायी हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ ;
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सब से हारी हूँ ।
पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है !
घनश्याम खंड सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है !
सर्वस्व समर्पण करने की विश्वास महा तरु छाया में ;
चुपचाप पड़ी रहने कीक्यों ममता जगती है माया में ?
छायापथ में तारक द्युति सी झिलमिल करने की मधु लीला ;
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम शीला ?
निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में ;
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में ।
नारी जीवन का चित्र यही क्या ? विकल रंग भर देती हो ;
अस्फुट रेखा की सीमा में; आकार कला को देती हो ।
रुकती हूँ और ठहरती हूँ पर सोच विचार न कर सकती ;
पगली सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदिन बकती ।
मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ;
भुज लता फँसा कर नर तरु से झूले सी झोंके खाती हूँ ।
इस अर्पण मे कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है ;
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ इतना ही सरल झलकता है ।"
"क्या कहती हो ठहरो नारी ! संकल्प अश्रु जल से अपने ;
तुम दान कर चुकीं पहले ही जीवन के सोने से सपने ।
नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में ;
पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ।
देवों की विजय,दानवों की हारों का होता युद्ध रहा ;
संघर्ष सदा उर अंतर में जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा ।
आँसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ लिखना होगा ;
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह सन्धि-पत्र लिखना होगा ।"
अनमोल सूत्र
पैसा उपर हो जाता है तो,वह अपना रूप प्रकट करना चाहता है। वह अकुलाता है कि मैं हूं और दिख नहीं रह हूं। मैं अपने को अभिव्यक्त करूं। और पैसा इस तरह फ़ूट्कर प्रकट हो जाता है जैसे कि पके फ़ोडे़ का मवाद।
फ़ूल में सौन्दर्य होता है,गन्ध होती है,कोमलता होती है। मगर ये लक्ष्मी फ़ूल को कुर्सी समझ कर उस पर बैठी है। धन की देवी है न। जब इनका यह हाल है तो देवी के कृपापात्र फ़ूहड़्पन क्यों नहीं करेंगे। फ़िर भी मैं कहता हूं देवी, तू अपनी बैठक बदल दे। सिंहासन पर बैठ मौज ले, हाथ में फ़ूल ले ले या फ़ूल जूड़े मे खोंस ले।
ये रिश्ता
आँखों में समा जाता है
ये रिश्ता...
ये रिश्ता क्या कहलाता है
जब सूरज थकने लगता है
और धूप सिमटने लगती है
कोई अनजानी सी चीज़ मेरी
साँसों से लिपटने लगती है
मैं दिल के क़रीब आ जाती हूँ
दिल मेरे क़रीब आ जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
इस गुमसुम झील के पानी में
कोई मोती आ कर गिरता है
इक दायरा बनने लगता है
और बढ़ के भँवर बन जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
तसवीर बना के रहती हूँ
मैं टूटी हुई आवाज़ों पर
इक चेहरा ढूँढती रहती हूँ
दीवारों कभी दरवाज़ों पर
मैं अपने पास नहीं रहती
और दूर से कोई बुलाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
मौत भी मैं शायराना चाहता हूं
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूं
कोई आंसू तेरे दामन पर गिराकर
बूंद को मोती बनाना चाहता हूं
थक गया मैं करते करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूं
छा रहा है सारी बस्ती में अंधेरा
रोशनी को घर जलाना चाहता हूं
आखिरी हिचकी तेरे शानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूं
तुम्हारा देखना
जाते जाते उस का वो मुड़ के दुबारा देखना
आईने की आंख ही कुछ कम ना थी मेरे लिए
जाने अब क्या क्या दिखायेगा तुम्हारा देखना
कोई घर ऐसा भी था
हम हवा के साथ चलते थे मगर ऐसा भी था
लौट आतीं थीं पिछ्ले कई पतों की चिट्ठियां
घर बदल देते थे बाशिन्दे नगर ऐसा भी था
वो किसी का भी न था लेकिन सबका मोतबर
कोई क्या जाने कि उसमें हुनर ऐसा भी था
खुद से ग़ाफ़िल हो के पल भर न खुद को सोचता
इस भरी बस्ती में कोई बेखबर ऐसा भी था
हर नई रुत बदल जाती तख़्ती नाम की
जिसको हम अपना समझते कोई घर ऐसा भी था
एहसास
यादों का कोई मौसम हो
दोस्तों की जब महफ़िल हो
तन्हाई में भी एहसास नया हो
ख़्वाबों में भी उसका साथ हो
एक खूबसूरत झोंका ही सही
शायद मिलने की कोई बात हो
नये मौसमों का अब साथ हो
दिल को भी उसका इन्तिज़ार हो
चाहे जीत हो या अब हार हो
यादों और वादों का भी साथ हो
एक खूबसूरत झोंका ही सही
मुहब्बत को भी मुहब्बत की प्यास हो
ख़ता जो की है कोई सज़ा हो
इक़रार करने का भी अपना मज़ा हो
मिलेंगे हम जब उसकी भी दुआ हो
शरारत और शिक़ायत भी साथ हो
एक खूबसूरत झोंका ही सही
उसके दिल में मेरा ही एहसास हो
जब कभी मेरे होठों पे हंसी आई है
अपने कमरे में तो मैं हूं मेरी तन्हाई है
वक्त बिगड़ा तो ये एहसास हुआ है मुझको
ठीक कहता था कोई दुनिया तमाशाई है
मैंने ख्वाबों को हक़ीक़त में बदलना चाहा
इसीलिए जागते रहने की सज़ा पाई है
हाल पूछो तो अभी रो पड़े जैसे दुनिया
चेहरे चेहरे पे यहां ग़म की घटा छाई है
यक ब यक चौंक उठे हादसे दुनिया भर के
जब कभी मेरे होठों पे हंसी आई है
एहसान मैं न लूंगा
बेमौत मार डाला एहसान जता जता के.
तेरा चमकते सूरज एहसान मैं न लूंगा
कर लूंगा मैं उजाला खुद अपना घर जला के.
मैं टूट भी गया तो मुझमें चमक रहेगी
आईना पत्थरों से कहता है मुस्कुरा के.
तुझसे बिछड़ के आलम में हम जी नहीं सकेंगे
देखो दग़ा ना देना अपना मुझे बना के.
कभी क़ातिल कभी खु़दा
बस तेरा नाम ही लिखा देखा
तेरी आखों में हमने क्या देखा
कभी क़ातिल कभी ख़ुदा देखा
अपनी सूरत लगी पराई सी
जब कभी हमने आईना देखा
हाय अंदाज़ तेरे रुकने का
वक़्त को भी रुका रुका देखा
तेरे जाने में और आने में
हमने सदियों का फ़ासला देखा
फिर ना आया ख़याल जन्नत का
जब तेरे घर का रास्ता देखा
नशा है या आशनाई
ये ज़हर मेरे लहू में उतर गया कैसे
कुछ उसके दिल में लगावट जरूर थी वरना
वो मेरा हाथ दबाकर गुज़र गया कैसे
जरूर उसके तसव्वुर की राहत होगी
नशे में था तो मैं अपने ही घर गया कैसे
जिसे भुलाये कई साल हो गये ऐ दोस्त
मैं आज उसकी गली से गुज़र गया कैसे
कोई तो राज़ है सताने में
क्या रक्खा है शराबखाने में
वक़्त लगता है कुछ बनाने में
देर लगती नहीं मिटाने में
याद करने की फ़ुरसतें न मिलीं
उम्र गुज़री तुझे भुलाने में
चाहते हैं कि रूठ जाओ तुम
के फ़िर मज़ा आयेगा मनाने में
मुझको बताओ या ना बताओ
कोई तो राज़ है सताने में