एक कोशिश मिल बैठने की....

Saturday, July 21, 2007

वेदना की बाँसुरी

खुल गये हैं बाँबियों के मुँह सुरंगों की तरह

आगये कुछ लोग सड़कों पर भुजंगों की तरह

सूर्य से लड़ने की जो करते हैं बातें रात भर

लुप्त हो जाते हैं वो दिन में पतंगों की तरह

वे अचानक ही कहानी के कथानक हो गये

और हम छपते रहे केवल प्रसंगों की तरह

वेदना की बाँसुरी को किस तरह सुन पाओगे

हर समय बजते रहोगे यदि मृदंगों की तरह

हम नहीं गन्तव्य तक पहुँचे तो कोई गम नहीं

पर न हम बैसाखियाँ लेगें अपंगों की तरह

2 comments:

Monika (Manya) said...

very nice n inspirational....keep up the good work..

Prashant Singh said...

Very inspirational . remindes me of dushyant Kumar.

Keep Writing