एक कोशिश मिल बैठने की....

Tuesday, July 24, 2007

कल और आज

कल भी बूंदें बरसीं थीं
कल भी बादल छाये थे
और कवि ने सोचा था
बादल,ये आकाश के सपने उन ज़ुल्फ़ों के साये हैं
दोशे-हवा पर मैख़ाने की मैख़ाने घिर आये हैं
रुत बदलेगी फ़ूल खिलेंगे झोंके मधु बरसायेंगे
उजले उजले खेतों में रंगीं आचल लहरायेंगे
चरवाहे बंसी की धुन से गीत फ़ज़ा में बोयेंगे
आमों के झुंडों के नीचे परदेसी दिल खोयेंगे
पैंग बढ़ाती गोरी के माथे से कौंदे लपकेंगे
जोहड़ के ठहरे पानी में तारे आँखें झपकेंगे
उलझी उलझी राहों में वो आँचल थामे आयेंगे
धरती,फ़ूल,आकाश,सितारे सपना सा बन जायेंगे
कल भी बूंदें बरसीं थीं
कल भी बादल छाये थे
और कवि ने सोचा था

आज भी बूंदें बरसेंगीं
आज भी बादल छाये हैं
और कवि इस सोच में है
बस्ती पर बादल छाये हैं,पर ये बस्ती किसकी है
धरती पर अमृत बरसेगा लेकिन ये धरती किसकी है
हल जोतेगी खेतों में अल्हड़ टोली दहक़ानों की
धरती से फ़ूटेगी मेहनत फ़ाक़ाकश इन्सानों की
फ़सलें काट के मेहनतकश ग़ल्ले के ढेर लगायेंगे
जागीरों के मालिक आकर सब पूँजी ले जायेंगे
बूढ़े दहक़ानों के घर बनिये की कुर्की़ आयेगी
और क़र्ज़े के सूद में कोई गोरी बेची जायेगी
आज भी जनता भूकी है और कल भी जनता तरसी थी
आज भी रिमझिम बरखा होगी कल भी बारिश बरसी थी
आज भी बूंदें बरसेंगीं
आज भी बादल छाये हैं
और कवि इस सोच में है

दोश - ग़ुज़री हुई रात
दहक़ाने - किसान लोग

Saturday, July 21, 2007

अजब सुरूर मिला है

अजब सुरूर मिला है मुझको दुआ करके

के मुस्कुराया है खुदा भी सितारा वा करके

गदागरी भी एक अस्लूबे फन है जब मैंने

उसी को माँग लिया उससे इल्तिजा करके

शब्बे फ़िराक़ के ज़ब्र को शिक़स्त हुई

के मैने सुबह तो कर ली खुदा खुदा करके

यह सोच कर कि कभी तो जवाब आएगा

मैं उसके दर पे खड़ा रह गया सदा कर के

यह चारागार हैं की इज़्तिमाये बदज़ौक़ा

वह मुझको देखें तेरी ज़ात से जुदा करके

खुदा भी उनको ना बख़्शे तो लुत्फ़ आ जाए

जो अपने आप से शर्मिन्दा हों खता करके

आफ़ताब सर पर आ गया

दयारे दिल की रात में चराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुअ वह शक्ल तो दिखा गया

जुदाइयों के ज़ख़्म दर्दे ज़िन्दगी ने भर दिए
उसे भी नीन्द आगई मुझे भी सब्र आगया

वह दोस्ती तो ख़ैर अब नसीबे दुश्मनां हुई
वह छोटी-छोटी रन्जिशों का लुत्फ़ भी चला गया

यह सुबह की सफ़ेदियाँ यह दोपहर की ज़र्दियाँ
मैं आइने में ढूँढता हूँ मैं कहाँ चला गया

यह किस ख़ुशी की रेत पर ग़मों को नीन्द आ गई
वह लहर किस तरफ़ गई,यह मैं कहाँ समा गया

जो और कुछ नहीं तो कोई ताज़ा दर्द ही मिले
मैं एक ही तरह की ज़िन्दगी से तंग आ गया

गये दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
अलम कशो ! उठो कि आफ़ताब सर पर आ गया

वेदना की बाँसुरी

खुल गये हैं बाँबियों के मुँह सुरंगों की तरह

आगये कुछ लोग सड़कों पर भुजंगों की तरह

सूर्य से लड़ने की जो करते हैं बातें रात भर

लुप्त हो जाते हैं वो दिन में पतंगों की तरह

वे अचानक ही कहानी के कथानक हो गये

और हम छपते रहे केवल प्रसंगों की तरह

वेदना की बाँसुरी को किस तरह सुन पाओगे

हर समय बजते रहोगे यदि मृदंगों की तरह

हम नहीं गन्तव्य तक पहुँचे तो कोई गम नहीं

पर न हम बैसाखियाँ लेगें अपंगों की तरह

Monday, July 16, 2007

"सम्पादक की वाणी"

अंग्रेज़ी सभ्यता रीति को दूर भगाने वाली

जन-जन को झकझोर ज़ोर से रोज़ जगाने वाली

स्वयं बनी मार्जनी स्वरूपा "सम्पादक की वाणी"

भारत और भारती की जाग्रत वाणी कल्याणी

अपनी श्वेत प्रभा से भाषा से नवराष्ट्र विधात्री

सम्पादन की शुचि रुचि से जन जन की प्राण प्रदात्री

मनुज मनुज को यह प्रदीप्त देवत्व प्रदान करेगी

जीवन में यज्ञीय-प्रतिष्टा प्रद सम्मान वरेगी

सम्पादक की वाणि! देवि! यह अभिनन्दन है मेरा

शाक्त शक्ति जाग्रत कर दो तम हर दो हँसे सवेरा

दूजा रंग रास न आए

इस रंग बिरंगी दुनिया पर क्या रंग असर करता है,

सब अपने रंग नहाए,

दूजा रंग रास न आए,

ना फाग जगा , न धमार उठी, न चंग असर करता है,

आँखों के सहस ठिकाने तन-ताप लगे झुलसाने,

ये देह बने जलजात हठात अनंग असर करता है,

रंग श्यामल मधुर मिठौना,

निर्गुण हो सगुण सलौना,

साखी, बानी, कविता, पद और अभंग असर करता है,

अबके वह रंग लगाना,

बन जाये जग 'बरसाना',

उत्सव का उज्ज्वल रंग मगर सबसंग असर करता है

Tuesday, July 10, 2007

ये छोटा बच्चा

कितना खु़श है

माँ की गोद में छोटा बच्चा

ये बहुत दूर है गुनाहों की लज़्ज़त से अभी

अभी इसने झूठ बोलना नहीं सीखा

न ये जानता है अपना मज़हब

न इसने लोगों को लड़ते देखा है

न इसने बेइमानी देखी

न इसने नफ़रत,न जुल्म,न ग़द्दारी देखी

अभी ये दुनियादारी नहीं समझता

अभी तो चाँद मांगता है ये

अपनी माँ तक ही दुनिया जानता है ये

कल ये बड़ा होगा

झूठ बोलना सीख जायेगा

गुनाह इसे आराम देंगे

नफ़रत,जुल्म,ग़द्दारी

मज़हब हो जायेंगे इसके

ये दुनियावालों की तरह खुदग़रज़ हो जायेगा

ऐ ख़ुदा काश

ये छोटा बच्चा

यूँ ही छोटा रहे

हमेशा

Monday, July 9, 2007

ज़रा सा मुस्कुराओ ना

गमों की जो फ़सील है

वह इस क़दर तवील है

ग़ज़ब तो ये है यह एक नहीं

फ़सील दर फ़सील है

तुम इसकी हर मुंडेर पर

आरजूओं के तेल से

चरागे दिल जलाओ ना

ज़रा सा मुस्कुराओ ना

वो फ़िर से याद गया

जो रूठ कर चला गया

उसे ख़याल भी नहीं

किसी का दिल दुखा गया

अब उसकी मीठी याद में

शबों को जाग जाग कर

ये रतजगे मनाओ ना

थोड़ा सा मुस्कुराओ ना

ये ग़म हमेशा आएँगे

ये दिल यूँ ही जलाएँगे

मगर ख़ुशी के आते ही

ये ग़म भी भूल जाएँगे

मलूल होगे ग़म से तुम

ज़रा फिर अपनी पलकों पे

सितारे झिलमिलाओ ना

ये आँसू मुझको सौंप के

ज़रा सा मुस्कुराओ ना

दिल की बातें

मिल गये थे एक बार जो लब से लब

उम्र भर होठों पे अपने मैं ज़बान फेरा


मैं तो फ़िर आप में रहता नहीं,दिल से

आगे फ़िर भींच के छाती से लगाने का मज़ा

दे के बोसा मुझे चितवन में जताता है वो शोख़

ऐसा पाया है तूने मज़ा कहीं और


क्या रुक के वो कहे है जो टक उससे लग चलूँ

बस बस परे हो, शौक़ ये अपने तईँ नहीं

ज़िन्दगी भी तो देता है मारने वाला

नज़र से दिल में मुहब्बत उतारने वाला

बहुत अजीज़ है मुश्किल में डालने वाला

नयी सहर के दिलासों के बीच

छोड़ गया हथेलियों से सूरज निकालने वाला

चहार सम्मत से अब धूप के अज़ाब में है

वो सायादार दरख्तों को काटने वाला

तेरा करम जो नवाज़े

तो मै भी बन जाऊँ

इबादतों मे तेरी दिन गुज़ारने वाला

तेरी अताएँ तो सभी को नवाज़ने वालीं

मैं साहिलों को भँवर से पुकारने वाला

दिया है ग़म

तो ज़िन्दगी भी तो देता है मारने वाला

डरते हैं हर चराग़ की रौशनी से हम

रखते नहीं हैं बैर किसी आदमी से हम

फ़िर भी हैं अपने शहर में अजनबी से हम

देखा है जलते जबसे ग़रीबों का आशियाँ

डरते हैं हर चराग़ की रौशनी से हम

हम बोलते नहीं तो समझो न बेज़बान

हैं अपने घर की बात कहें क्यूँ किसी से हम

तेरी खुशी का आज भी इतना खयाल है

लेते नहीं हैं साँस भी अपनी ख़ुशी से हम

समझेगा तब कहीं वो समान दर हमारा दुख

अश्कों की दें मिसाल जो बहती नदी से हम

या तो हमारी नज़रों का सारा कुसूर है

या दूर हो गये हैं बहुत रौशनी से हम

Sunday, July 8, 2007

कोई बहुत उदास रहता है

उससे कहना

कोई आज भी तुम बिन

हिज्र की झुलसती दोपहरों में सुलगता है

हब्स ज़दा रातों में

पलकों से तारे गिनता है

शाम के उदास लम्हों में

दरिया किनारे बैठकर तुम्हें याद करता है

अक्सर दरख्तों पर तुम्हारा नाम लिखता

और मिटाता रहता है

हवाओं से तुम्हारी बात करता है

तुम्हें लौट आने को कहता है

कोई तुमसे बिछड़ कर

बहुत उदास रहता है!

Saturday, July 7, 2007

वो कौन था ?

पसपाई की खिफ़्फ़त का असर काट रहा है
मेरी तस्वीर का सर काट रहा है
ज़ालिम तुझे ये भी नही मालूम की अब तक
कोई तेरे हिस्से का सफ़र काट रहा है
ये बात अलग है कोई मक़सद ना हो हासिल
हर शख्स को हर शख्स मगर काट रहा है
वो अपनी निगाहों के इशारे से बराबर
हर देखने वाले की नज़र काट रहा है
वो कौन था ये है उसको गरज़ क्या
ज़ल्लाद तो बस हुक़म पे सर काट रहा है

मय

मेरा यही ख़याल है गो मैंने पी नहीं
कोई हसीं पिलाए तो यह शय बुरी नहीं

आते आते तेरे लब पर जो तबस्सुम बन जाये
उस अदा से कभी हमसे भी हो पैमान कोई


कमबख़्त ने शराब का ज़िक्र इस क़दर किया
वाइज़ के मुँह से आने लगी बू शराब की


आँचल ढला रहे मेरे मस्ते शबाब का
ओढ़ा गया कभी न दुपट्टा संभाल के


कोई मुँह चूम लेगा इस 'नहीं' पर
शिकन रह जायेगी यूँ ही जबीं पर


तबस्सुम : मुस्कान
पैमान : वादा
वाइज़ : धर्मोपदेशक
शिकन : त्योरी
जबीं : माथा

Friday, July 6, 2007

कुछ रचनाएं दुष्‍यंत कुमार की

हिंदी के रचनाकारों में दुष्‍यंत कुमार का नाम बहुत सम्‍मान के साथ लिया जाता है। कम ही रचनाओं के माघ्‍यम से उन्‍होंने जो बात कही वैसी बातें हजारों पन्‍नों काले करके भी नहीं कही जा सकती। तो पेश है उनकी कुछ चुनिंदा कविताएं ।




हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।


आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।


हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोश‍िश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।




ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ


यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं सभी नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा


ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा



तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है कि
इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ


कई फ़ाके बिताकर मर गया जो उस के बारे में

वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा


यहाँ पर सिर्फ़ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा


चलो अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें
कम से कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा



मत कहो, आकाश में कुहरा घना


मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्‍यक्तिगत आलोचना है


सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्‍या करोगे सूर्य को क्‍या देखना है


इस सडक पर इस कदर कीचड बिछी है
हर किसी का पांव घुटने तक सना है


पक्ष और प्रतिपक्ष संसद में मुखर है
बात इतनी है कि कोई पुल बना है


रक्‍त वर्षों से खून में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्‍तेजना है


हो गई है घाट पर पूरी व्‍यवस्‍था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है


दोस्‍तों अब मंच पर सुव‍िधा नहीं
आजकल नेपथ्‍य में संभावना है.





बहुत खूब दोस्त

मुझे विश्वास था कि वह कुछ अच्छा करेगा . दरअसल शुरू से ही उसमें बेहतर करने की बहुत गुंजाइश थी. शुक्र है कि ऐसा ही हुआ. यह भले ही एक छोटा प्रयास दिखता हो, मगर मैं इसे एक शुरूआत के रूप में देखता हूं. अभी तो इस सफर में कई पड़ाव आएंगे, कुछ इक्की दुक्की दिक्कतें भी पेश आएंगी, मगर वो सदा बेहतर करता रहे यही कामना है, और यही दुआ भीइसलिए नहीं के वो अच्छा दोस्त है, वह इसलिए क्योंकि वह वाकई बहुत मायनों में कईयों से कई दर्जे बेहतर हैएक बेहतर इंसान है। इन उधार ली गई कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियों के साथ अनुमति चाहूंगा



गहन सघन मनमोहक वन तक

मुझको आज बुलाते हैं

परंतु किए जो वादे मैंने

याद मुझे जाते हैं

अभी कहां आराम बदा

यह मूक निमंत्रण छलना है

अभी मीलों मुझको चलना है

अभी मीलों तुझको चलना है

अभी मीलों हमको चलना है

अभय


लज्जा


श्री जयशंकर प्रसाद जी की अन्यतम कृति ' कामायनी ' हिन्दी साहित्य का ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य का बेजोड़ महाकाव्य है।इसे आधुनिक हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ और रामचरितमानस के बाद दूसरा महान काव्य कहा गया है।इसी महाकाव्य कामायनी का लज्जा सर्ग प्रस्तुत कर रहा हूँ , इस उर्दू बहुल साहित्य समाज में हमारे हिन्दी साहित्य के कवियों की रचनाओं का स्मरण दिलाने का बस एक छोटा सा प्रयास है, यदि लज्जा पूरी पढें तो मैं ये समझूँगा कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ, आशा है मैं अपने प्रयास में सफल होऊँगा । और हाँ लिखने में हुई किसी प्रकार की अशुद्धि के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ

लज्जा
कोमल किसलय के अन्चल में नन्हीं कलिका ज्यों छिपती सी;
गोधूलि के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती सी ।

मन्जुल स्वप्नों की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों;
सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों ।

वैसी ही माया में लिपटी अधरों पर उँगली धरे हुए;
माधव ले सरस कुतूहल का आँखों मे पानी भरे हुए ।

नीरव निशीथ में लतिका सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती ?
कोमल बाहें फैलाये सी आलिंगन का जादू पढ़ती!

किन इन्द्रजाल के फूलों से लेकर सुहाग कण राग भरे ;
सिर नीचा कर हो गूँथ रही माला जिससे मधु धार ढरे?

पुलकित कदंब की माला सी पहना देती हो अन्तर में ;
झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में ।

वरदान सदृश हो डाल रही नीली किरनों से बुना हुआ;
यह अंचल कितना हलका सा कितने सौरभ से सना हुआ ।

सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ ;
मैं सिमट रही सी अपने में परिहास गीत सुन पाती हूं ।

स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भर कर बाँकपना ;
प्रत्य्क्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना ।

मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा ;
अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता सा डोल रहा ।

अभिलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के स्वागत को ;
जीवन भर के बल वैभव से सत्कृत करती दूरागत को ।

किरनों का रज्जु समेट लिया जिसका अवलंबन ले चढ़ती ;
रस के निर्झर से धँस कर मैं आनन्द शिखर के प्रति बढ़ती ।

छूने में हिचक, देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं ;
कलरव परिहास भरी गूँजें अधरों तक सहसा रुकती हैं ।

संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजती खड़ी रही ;
भाषा बन भौंहों की काली रेखा भ्रम में पड़ी रही ।

तुम कौन ? हृदय की परवशता ? सारी स्वतंत्रता छीन रहीं ;
स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवन वन से हो बीन रहीं !"

संध्या की लाली में हँसती, उसका ही आश्रय लेती सी ;
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती सी ।

"इतना न चमत्कृत हो बाले! अपने मन का उपकार करो ;
मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच विचार करो ।

अंबर-चुम्बी हिम श्रृंगों से कलरव कोलाहल साथ लिये ;
विद्युत की प्राणमयी धारा बहती जिसमें उन्माद लिये ।

मंगल कुंकुम कि श्री जिसमें निखरी हो ऊषा की लाली ;
भोला सुहाग इठलाता सा हो ऐसी जिसमें हरियाली ।

हो नयनों का कल्याण बना आनंद सुमन सा विकसा हो ;
वासंती के वन-वैभव में जिसका पंचम स्वर पिक सा हो ।

जो गूँज उठे फिर नस नस मे मूर्च्छना समान मचलता सा ;
आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता सा ।

नयनों की नीलम की घाटी जिस रस घन से छा जाती हो ;
वह कौंध कि जिससे अंतर की शीतलता ठंढक पाती हो ।

हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का गोधूली की सी ममता हो ;
जागरण प्रात सा हँसता हो जिसमें मध्याह्न निखरता हो ।

हो चकित निकल आई सहसा जो अपने प्राची के घर से ;
उस नवल चन्द्रिका सा बिछले जो मानस की लहरों पर से ।

फूलों की कोमल पंखड़ियाँ बिखरें जिनके अभिनन्दन में ;
मकरन्द मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में ।

कोमल किसलय मर्मर रव से जिसका जय घोष सुनाते हों ;
जिसमें दुख सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों ।

उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं ;
जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं ।

मैं उसी चपल की धात्री हूँ गौरव महिमा हूँ सिखलाती ;
ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती।

मैं देव सृ्ष्टि की रति रानी निज पंचवाण से वंचित हो ;
बन आवर्जना मूर्ति दीना अपनी अतृप्ति सी संचित हो ।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में अपनी अतीत असफलता सी ;
लीला विलास की खेद भरी अवसाद मयी श्रम दलिता सी ।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ ;
मतवाली सुंदरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ ।

लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती ;
कुंचित अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बन कर जगती ।

चंचल किशोर सुंदरता की मैं करती रहती रखवाली ;
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली ।

"हाँ ठीक,परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है ;
इस निविड़ निशा में संसृति की आलोकमयी रेखा क्या है?

यह आज समझ तो पायी हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ ;
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सब से हारी हूँ ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है !
घनश्याम खंड सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है !

सर्वस्व समर्पण करने की विश्वास महा तरु छाया में ;
चुपचाप पड़ी रहने कीक्यों ममता जगती है माया में ?

छायापथ में तारक द्युति सी झिलमिल करने की मधु लीला ;
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम शीला ?

निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में ;
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में ।

नारी जीवन का चित्र यही क्या ? विकल रंग भर देती हो ;
अस्फुट रेखा की सीमा में; आकार कला को देती हो ।

रुकती हूँ और ठहरती हूँ पर सोच विचार न कर सकती ;
पगली सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदिन बकती ।

मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ;
भुज लता फँसा कर नर तरु से झूले सी झोंके खाती हूँ ।

इस अर्पण मे कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है ;
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ इतना ही सरल झलकता है ।"

"क्या कहती हो ठहरो नारी ! संकल्प अश्रु जल से अपने ;
तुम दान कर चुकीं पहले ही जीवन के सोने से सपने ।

नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में ;
पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ।

देवों की विजय,दानवों की हारों का होता युद्ध रहा ;
संघर्ष सदा उर अंतर में जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा ।

आँसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ लिखना होगा ;
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह सन्धि-पत्र लिखना होगा ।"


अनमोल सूत्र

सुना है कि पहले दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता था। कौन लिखता था ये तो आस्तिक लोग ही जानते होंगे। पर अब वही कौन दाने-दाने पर कालाबाज़ार वाले का नाम लिखने लगा है । वही कौन दाने पर खाने वाले के बदले उसके बिना मरने वाले का नाम लिख्नकर काले गोदाम में दाल देता है.

पैसा उपर हो जाता है तो,वह अपना रूप प्रकट करना चाहता है। वह अकुलाता है कि मैं हूं और दिख नहीं रह हूं। मैं अपने को अभिव्यक्त करूं। और पैसा इस तरह फ़ूट्कर प्रकट हो जाता है जैसे कि पके फ़ोडे़ का मवाद।

फ़ूल में सौन्दर्य होता है,गन्ध होती है,कोमलता होती है। मगर ये लक्ष्मी फ़ूल को कुर्सी समझ कर उस पर बैठी है। धन की देवी है न। जब इनका यह हाल है तो देवी के कृपापात्र फ़ूहड़्पन क्यों नहीं करेंगे। फ़िर भी मैं कहता हूं देवी, तू अपनी बैठक बदल दे। सिंहासन पर बैठ मौज ले, हाथ में फ़ूल ले ले या फ़ूल जूड़े मे खोंस ले।

ये रिश्ता

कोई सच्चे ख्वाब दिखा कर
आँखों में समा जाता है
ये रिश्ता...
ये रिश्ता क्या कहलाता है
जब सूरज थकने लगता है
और धूप सिमटने लगती है
कोई अनजानी सी चीज़ मेरी
साँसों से लिपटने लगती है
मैं दिल के क़रीब आ जाती हूँ
दिल मेरे क़रीब आ जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
इस गुमसुम झील के पानी में
कोई मोती आ कर गिरता है
इक दायरा बनने लगता है
और बढ़ के भँवर बन जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
तसवीर बना के रहती हूँ
मैं टूटी हुई आवाज़ों पर
इक चेहरा ढूँढती रहती हूँ
दीवारों कभी दरवाज़ों पर
मैं अपने पास नहीं रहती
और दूर से कोई बुलाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है

मौत भी मैं शायराना चाहता हूं

अपने होठों पर सजाना चाहता हूं
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूं

कोई आंसू तेरे दामन पर गिराकर
बूंद को मोती बनाना चाहता हूं

थक गया मैं करते करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूं

छा रहा है सारी बस्ती में अंधेरा
रोशनी को घर जलाना चाहता हूं

आखिरी हिचकी तेरे शानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूं

तुम्हारा देखना

यूं बिछड़ना भी बहुत आसां ना था उस से मगर,
जाते जाते उस का वो मुड़ के दुबारा देखना

आईने की आंख ही कुछ कम ना थी मेरे लिए
जाने अब क्या क्या दिखायेगा तुम्हारा देखना

कोई घर ऐसा भी था

रुख बदलते हि्चकिचाते थे कि डर ऐसा भी था
हम हवा के साथ चलते थे मगर ऐसा भी था

लौट आतीं थीं पिछ्ले कई पतों की चिट्ठियां
घर बदल देते थे बाशिन्दे नगर ऐसा भी था

वो किसी का भी न था लेकिन सबका मोतबर
कोई क्या जाने कि उसमें हुनर ऐसा भी था

खुद से ग़ाफ़िल हो के पल भर न खुद को सोचता
इस भरी बस्ती में कोई बेखबर ऐसा भी था

हर नई रुत बदल जाती तख़्ती नाम की
जिसको हम अपना समझते कोई घर ऐसा भी था

एहसास

यादों का कोई मौसम हो


दोस्तों की जब महफ़िल हो

तन्हाई में भी एहसास नया हो

ख़्वाबों में भी उसका साथ हो

एक खूबसूरत झोंका ही सही

शायद मिलने की कोई बात हो

नये मौसमों का अब साथ हो

दिल को भी उसका इन्तिज़ार हो

चाहे जीत हो या अब हार हो

यादों और वादों का भी साथ हो

एक खूबसूरत झोंका ही सही

मुहब्बत को भी मुहब्बत की प्यास हो

ख़ता जो की है कोई सज़ा हो

इक़रार करने का भी अपना मज़ा हो

मिलेंगे हम जब उसकी भी दुआ हो

शरारत और शिक़ायत भी साथ हो

एक खूबसूरत झोंका ही सही

उसके दिल में मेरा ही एहसास हो

जब कभी मेरे होठों पे हंसी आई है

गोशा ए ज़हन में किसकी ये सदा आई है
अपने कमरे में तो मैं हूं मेरी तन्हाई है

वक्त बिगड़ा तो ये एहसास हुआ है मुझको
ठीक कहता था कोई दुनिया तमाशाई है

मैंने ख्वाबों को हक़ीक़त में बदलना चाहा
इसीलिए जागते रहने की सज़ा पाई है

हाल पूछो तो अभी रो पड़े जैसे दुनिया
चेहरे
चेहरे पे यहां ग़म की घटा छाई है

यक ब यक चौंक उठे हादसे दुनिया भर के
जब कभी मेरे होठों पे हंसी आई है

एहसान मैं न लूंगा

दुनिया के हादसों से तुने मुझे बचा के
बेमौत मार डाला एहसान जता जता के.

तेरा चमकते सूरज एहसान मैं न लूंगा
कर लूंगा मैं उजाला खुद अपना घर जला के.

मैं टूट भी गया तो मुझमें चमक रहेगी
आईना पत्थरों से कहता है मुस्कुरा के.

तुझसे बिछड़ के आलम में हम जी नहीं सकेंगे
देखो दग़ा ना देना अपना मुझे बना के.

कभी क़ातिल कभी खु़दा

दिल के दीवारों दर पे क्या देखा
बस तेरा नाम ही लिखा देखा

तेरी आखों में हमने क्या देखा
कभी क़ातिल कभी ख़ुदा देखा

अपनी सूरत लगी पराई सी
जब कभी हमने आईना देखा

हाय अंदाज़ तेरे रुकने का
वक़्त को भी रु
का रुका देखा

तेरे जाने में और आने में
हमने सदियों का फ़ासला देखा

फिर ना आया ख़याल जन्नत का
जब तेरे घर का रास्ता देखा

नशा है या आशनाई

मैं होश में था तो फिर उसपे मर गया कैसे

ये ज़हर मेरे लहू में उतर गया कैसे

कुछ उसके दिल में लगावट जरूर थी वरना

वो मेरा हाथ दबाकर गुज़र गया कैसे

जरूर उसके तसव्वुर की राहत होगी

नशे में था तो मैं अपने ही घर गया कैसे

जिसे भुलाये कई साल हो गये ऐ दोस्त

मैं आज उसकी गली से गुज़र गया कैसे

कोई तो राज़ है सताने में

लुत्फ़ आता है ग़म उठाने में

क्या रक्खा है शराबखाने में

वक़्त लगता है कुछ बनाने में

देर लगती नहीं मिटाने में

याद करने की फ़ुरसतें न मिलीं

उम्र गुज़री तुझे भुलाने में

चाहते हैं कि रूठ जाओ तुम

के फ़िर मज़ा आयेगा मनाने में

मुझको बताओ या ना बताओ

कोई तो राज़ है सताने में