एक कोशिश मिल बैठने की....

Tuesday, July 24, 2007

कल और आज

कल भी बूंदें बरसीं थीं
कल भी बादल छाये थे
और कवि ने सोचा था
बादल,ये आकाश के सपने उन ज़ुल्फ़ों के साये हैं
दोशे-हवा पर मैख़ाने की मैख़ाने घिर आये हैं
रुत बदलेगी फ़ूल खिलेंगे झोंके मधु बरसायेंगे
उजले उजले खेतों में रंगीं आचल लहरायेंगे
चरवाहे बंसी की धुन से गीत फ़ज़ा में बोयेंगे
आमों के झुंडों के नीचे परदेसी दिल खोयेंगे
पैंग बढ़ाती गोरी के माथे से कौंदे लपकेंगे
जोहड़ के ठहरे पानी में तारे आँखें झपकेंगे
उलझी उलझी राहों में वो आँचल थामे आयेंगे
धरती,फ़ूल,आकाश,सितारे सपना सा बन जायेंगे
कल भी बूंदें बरसीं थीं
कल भी बादल छाये थे
और कवि ने सोचा था

आज भी बूंदें बरसेंगीं
आज भी बादल छाये हैं
और कवि इस सोच में है
बस्ती पर बादल छाये हैं,पर ये बस्ती किसकी है
धरती पर अमृत बरसेगा लेकिन ये धरती किसकी है
हल जोतेगी खेतों में अल्हड़ टोली दहक़ानों की
धरती से फ़ूटेगी मेहनत फ़ाक़ाकश इन्सानों की
फ़सलें काट के मेहनतकश ग़ल्ले के ढेर लगायेंगे
जागीरों के मालिक आकर सब पूँजी ले जायेंगे
बूढ़े दहक़ानों के घर बनिये की कुर्की़ आयेगी
और क़र्ज़े के सूद में कोई गोरी बेची जायेगी
आज भी जनता भूकी है और कल भी जनता तरसी थी
आज भी रिमझिम बरखा होगी कल भी बारिश बरसी थी
आज भी बूंदें बरसेंगीं
आज भी बादल छाये हैं
और कवि इस सोच में है

दोश - ग़ुज़री हुई रात
दहक़ाने - किसान लोग

8 comments:

Divine India said...

साहिर साहब की यह रचना प्रस्तुत करके बहुत अच्छा किया…इस संदर्भ में कि पता तो चले की वह सोंच क्या हुआ करती थी जिसपर दुनियाँ आज भी बिछी हुई है…।
लेकिन विभावरी भाई… मैं थोड़ी हिम्मत करुंगा, मेरा यह कहना है कि यह जो रचना है उसकी काफी सारी पंक्तियाँ समयबाह्य हो चुंकि हैं एक गहरा द्वेष भी है…।

विभावरी रंजन said...

भाई दिव्याभ !!
सच कहा.......आज के परिप्रेक्ष्य में ये तो बीते जमाने की बातें ज्यादा लगती हैं,वो जागीरदारों की बातें......

विभावरी रंजन said...
This comment has been removed by the author.
Udan Tashtari said...

साहिर साहब की इस बेहतरीन रचना को प्रस्तुत करने के लिये आभार और साधुवाद.

विभावरी रंजन said...

आप जैसे लोग जब हम शिशुओं के ब्लौग पर आ जाते हैं यही हमारे लिये बहुत है और आप विद्वज्जनों की टिप्पणी तो भाव विभोर कर देती है.....
आपका स्वागत है,

Monika (Manya) said...

बहुत अच्छी लगी रचना.. सच कहते हैं आप विभावरी की गुजरा जमाने की बातें याद करना अच्छा लगता है..और मुझे नहीं लगता की वक्त पूरी तरह बदल चुका है...

Unknown said...

kal aur aaj mein bivhinnta khusboo ki aa gayee wo bhi apney watan ki , apney mitti ki.....

but acchi rachna.

Anonymous said...

http://sarkari-naukari.blogspot.com/